–डॉ.इन्दु जैन राष्ट्र गौरव,दिल्ली
आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनुभूति करना ही उत्तम सत्य है।
सत्य धर्म का मूल आधार है; सत्य की आवश्यकता गृहस्थ धर्म और साधु धर्म दोनों के लिये परम आवश्यक है । गृहस्थ जीवन में बिना सत्य के विश्वास नहीं रहता है और विश्वास के अभाव में जीवन का व्यवहार नहीं चलता है। इस प्रकार से व्यवहार के अभाव में जीवन दुःखी और निराश हो जाता है । साधु धर्म का उद्देश्य मोक्ष-प्राप्ति करना है, तदनुसार मोक्ष-प्राप्ति में सत्य एक प्रमुख साधन अथवा अंग है ।
“दसधम्मसारो” पुस्तक में डॉ. अनेकान्त जैन ने “उत्तम – सच्चं” की व्याख्या करते हुए लिखा है कि –
“सच्चधम्मे य सच्चे वयणे अत्थि भेओ जिणधम्मम्मि ।
पढमो वत्थुसहावो दुवे अत्थि महव्वयं साहूणं ।।”
“जिनधर्म में उत्तम सत्य धर्म और सत्य वचन में भेद है। एक (उत्तम सत्य धर्म) तो वस्तु का स्वभाव है और दूसरा ( सत्य वचन ) मुनियों का महाव्रत है ।”
दशलक्षण महापर्व में प्रथम चार दिवस जिनकी आराधना की जाती है वे धर्म के लक्षण क्षमा , मार्दव , आर्जव , शौच आत्मा का स्वभाव है , वहीं सत्य संयम तप त्याग इन गुणों को प्रगट करने के उपाय हैं , या कहें कि ये वो साधन हैं जिनसे हम आत्मिक गुणों की अनुभूति और प्रकट कर सकते हैं।
जब आत्मा से क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों का त्याग कर दिया जाता है और आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच धर्म को धारण किया जाता है तब उत्तम सत्य धर्म धारण होता है। आत्मानुभूति ही परम सत्य है। सत्य ही भगवान है। सत्य ही परम तप है। सत्य ही चिंतामणी है। सत्य ही कामधेनु है। यदि उत्तम सत्य का जीवन में प्रयोग करेंगे तो हमारा जीवन आनंदमय एवं सुखमय होगा।
सत्य असीम है, शब्द ससीम है। धर्म अनुभव को सत्य कहता है शब्द को नहीं, क्योंकि शब्द जड़ है, मुर्दा है पर सत्य चेतन है। सत्य को शब्द के डिब्बों में बन्द नहीं किया जा सकता, जो बंद हो जाए, वह शब्द ही नहीं क्योंकि शब्दों के माध्यम से जो व्यक्त किया जाता है वह पूर्ण सत्य नहीं होता है। जैसे अंधकार कहने से प्रकाश छूट जाता है वैसे ही शब्द से एक पक्ष प्रगट किया जा सकता है, एक पक्ष स्वत: छूट जाता है। सत्य को भले ही पूर्णता से व्यक्त न किया जा सके, पर अनुभव अवश्य ही किया जा सकता है। वचन 'नीम' से ज़्यादा कड़वा, 'गुड़' से ज़्यादा मीठा हो सकता है। पं. दौलतराम जी ने छहढाला की छठी ढाल में कहा है कि -
“जग सुहितकर सब अहितहर श्रुति, सुखद सब संशय हरे।
भ्रम रोग हर जिनके वचन मुख, चन्द्र ते अमृत झरें।।”
इसका संदेश है कि सदा हित-मित-प्रिय वचन ही बोलें, ऐसे वचन जो सदा हितकारी हों। थोड़ा बोलें, ऐसा बोलें, जो सुनने वाले के कानों को अमृत की तरह प्रिय लगे।
अहिंसा और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अहिंसा के अभाव में सत्य एवं सत्य के अभाव में अहिंसा की स्थिति नहीं है। अहिंसा कहती है कि ऐसा मत करो पर सत्य विधिसूचक है। हमारे जीवन के लिए अहिंसा और सत्य दोनों होना आवश्यक हैं। मानव जीवन में यदि सत्य निष्ठा नहीं होगी तो उसके जीवन में धर्म का भी कोई अस्तित्व न होगा। धर्म की जड़ें सत्य पर आधारित हैं। कहा भी गया है कि –
जहाँ सत्य है वहीं धर्म है,जहाँ असत्य महत्तम पाप।
असत्-कटुक-निंदक वचनों से,जन पाते अतिशय संताप।।
जिनका जीवन सुमन अलौकिक,सत्य सुरभि से है भरपूर।
रत्नत्रय, शिवपथ के गामी, उनकी मंज़िल नहीं है दूर ।।
सत्य बहुत महत्त्वपूर्ण है- जीवन में भी और धर्म में भी। उत्तम सत्य को तो वीतराग ही परिपूर्णत: प्राप्त कर सकते हैं पर सामान्य मानव को जीवन में व्यवहार सत्य अपनाना चाहिए।
“सते हितं यत्कथ्यते तत्सत्यं” अर्थात् जो हित के लिए कहा जाता है वह सत्य है। जीवन का आधार सत्य है और जीवन का लक्ष्य भी सत्य है। हमें सत्य के परमरूप को जानने के लिए झूठ के आवरण को त्यागना होगा। एक बात और विचार करनी चाहिए कि कभी भी अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए इससे तो मौन रहना ही अच्छा है। कहते भी हैं कि – सांच बराबर तप नहीं। सत्य परम तप है। केवल सत्य ही है जो सदैव शाश्वत है। मनुष्य सत्य धारण करने से ही उन्नति की ओर बढ़ सकता है जब देश का हर नागरिक सत्य और धर्म के मार्ग पर चलेगा, एक दूसरे का हितैषी बनकर रहेगा, सेवा भाव से उपकार के कार्यों को करेगा तभी हमारा परिवार, समाज, देश सुखी रह सकता है। हम सभी अपनी अंतर आत्मा के परम सत्य को पहचानें और उत्तम सत्य धारण करके परम लक्ष्य को साधें यही हम सभी की शुभभावना होनी चाहिए।
“सत्य वचन हितकारी है,सबको आनंदकारी है।
परम सत्य शुद्धात्म मान,बन जाना जल्दी भगवान।।”
(जाप मंत्र- ऊँ हृीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नम:)