डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव, दिल्ली
“णिव्वेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु,
जो तस्स हवे च्चागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं।।”
“बारस अणुवेक्खा” की इस प्राकृत गाथा में त्याग की व्याख्या करते हुए लिखा है कि – “जिनेन्द्र भगवान् ने कहा कि जो जीव समस्त परद्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीनरूप परिणाम रखता है, उसके त्याग धर्म होता है।”
“त्याग” शब्द अपने आप में अनुपम और अनूठा है। प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ त्याग की ही शिक्षा देता है। संसार की प्रत्येक क्रिया त्याग मूलक है। सोचिए कि यदि वृक्ष फलों को त्यागना, नदी पानी को त्यागना, अग्नि उष्णता प्रदान करना बन्द कर दे तो संसार की स्थिति भयावह बन जाएगी। त्याग की महिमा अपरम्पार है। त्याग ही जीवन का सम्मान करता है। त्याग ही जीव को ऊपर उठाता है। त्याग ही शान्ति का सोपान है। त्याग ही मुक्ति का मार्ग है।
इस सृष्टि के समस्त सुख और दुख, त्याग और ग्रहण के आधार पर ही निर्भर हैं। अध्यात्मिक और व्यवहारिक दोनों दृष्टियों से विचार करें तो हम जितना अधिक अपने भीतर त्याग की भावना को ग्रहण करेंगे, हमें उतना ही अधिक सुख प्राप्त होगा और जितना अधिक पर पदार्थों को ग्रहण करने और अपनाने का भाव होगा उतना ही अधिक हम दु:ख प्राप्त करेंगे। अत: यदि हमें अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बनाना है तो हमें उत्तम त्याग धर्म को अपनाना ही होगा।
किन्तु यदि हम किसी भी वस्तु या दुर्गुणों का त्याग करते हैं तो हमें उसके विचारों का भी त्याग करना होगा। यदि त्याग करने के बाद भी उसी का विचार मन में चलता रहेगा तो वह त्याग पाप का बंध कराएगा।
अपनी आत्मा को शुद्ध करके सिद्धत्व की ओर ले जाना है तो अपने मन से क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और स्नेह का त्याग करना आवश्यक है। त्याग की मज़बूत नींव पर ही जीवन धर्म की ओर आगे बढ़ सकता है।
कहा गया है कि –
“तप से वस्तु विकार छोड़ती,तप से होता आतम शुद्ध।
श्रद्धा-ज्ञान-विवेक पूर्ण ही, कहलाता है त्याग विशुद्ध।।
औषध-शास्त्र-अभय-आहारा, कहे जिनेन्द्र चतुर्विध दान।
त्यागो, दान करो,पर मन में लाओ नहीं लेश अभिमान।।”
विचार कीजिए कि जब हम मंदिर जाते हैं तो हम उतने समय के लिए घर का त्याग करते हैं और प्रभु और गुरु के दर्शन मिल जाते हैं। सोचिए ज़रा कि यदि हम जीवनभर के लिए घर का त्याग कर दें और संन्यासी हो जाएं तो ? तो निश्चित रूप से हमें साक्षात् भगवंत मिल जाएंगे और तप त्याग का अनुसरण करके हम स्वयं ही भगवान बन जाएंगे। त्याग ही जीवन का सौंदर्य है। बिना त्याग के जीवन में पूज्यता नहीं आती है। निज शुद्धात्म को ग्रहण करके बाह्य और आभ्यांतर परिग्रह की निवृत्ति ही उत्तम त्याग है।
अब कुछ सहज प्रश्नों के बारे में सोचिए। कहीं आपने देखा है क्या कि बिना बीज के वृक्ष उत्पन्न हो गया हो ? या कोई ऐसा पक्का मकान जिसकी नींव ही न हो? शायद कभी नहीं देखा होगा। इसी प्रकार बिना त्याग के जीवन निर्मित नहीं होता है। वस्तु का पूर्णतया विसर्जन ही त्याग है।व्यवहार में भी हम देखें तो हम हर पल का त्याग करते हैं तभी दूसरे पल को प्राप्त कर पाते हैं। बचपन के त्याग से युवावस्था और युवावस्था के त्याग से वृद्धा अवस्था प्राप्त होती है। दुकान से तभी सामान खरीदा जा सकता है जब हम पैसे का त्याग करते हैं। मायके का त्याग करके ही बिटिया ससुराल जा पाती है। अत: हमें स्वीकार करना होगा कि त्याग के बिना जीवन का एक क्षण भी व्यतीत नहीं होता। समाज और परिवार में रहते हुए अनेक त्याग करने पड़ते हैं तभी परिवार और समाज में सामन्जस्य स्थापित हो पाता है। यदि त्याग नहीं होगा तो बैर-विरोध उत्पन्न होगा और परिवार-समाज में सबकुछ बिखर जाएगा अत: हम सहिष्णु और दयालु तभी हो सकते हैं जब हमारे भीतर त्याग का गुण हो।
“दसधम्मसारो” पुस्तक में प्रो.अनेकान्त जैन ने प्राकृत गाथा में “उत्तम-चागं” की उत्तम व्याख्या की है –
“सगवत्थुणं य दाणं चागपरदव्वेसु रागाभावो।
णाणचागो ण होदि य भेयणाणं अत्थि पच्चक्खाणं।।”
अर्थात् “स्व वस्तुओं का दान होता है और पर वस्तुओं में रागद्वेष का अभाव त्याग है। निश्चित ही ज्ञान का त्याग नहीं होता है (जबकि दान होता है ) और वास्तव में परद्रव्यों से भेदज्ञान होना ही प्रत्याख्यान (त्याग) है।”
“त्याग” शब्द ‘त्यज्’ धातु से बना है अर्थात् ‘छोड़ना’ – त्यजनं त्याग:। बुरे को त्यागना और अच्छे का दान करना ही हम सभी का परम कर्तव्य है। हमारी जैसी भावना होती है वैसा ही हमें फल मिलता है। हमारे लिए राग हो या द्वेष दोनों ही बुरा है अत: हमें इन दोनों का त्याग करना चाहिए और श्रावक अवस्था में, अपनी शक्ति के अनुसार अधिक से अधिक दान करना चाहिए।
तीर्थंकर महावीर स्वामी कहते हैं – “छोड़ो, क्योंकि जितना छूटेगा, उतना ही दु:ख मिटेगा। जीवन में आचरण की प्रधानता है। अत: हम अपने भीतर ममत्व को हटाने का प्रयास करें और उत्तम त्याग धर्म को अपनाएं यही हम सभी की शुभ भावना होनी चाहिए।”
जैन धर्म में चार प्रकार के दान बताए गए हैं – औषधि, शास्त्र, अभय और आहार। ये दान भी दो प्रकार के हैं – अलौकिकदान और लौकिकदान। अलौकिकदान साधु संतों को दिया जाता है और लौकिक दान सामान्यजन को दिया जाता है। आपके द्वारा किया गया औषधि का दान किसी को नवजीवन प्रदान कर सकता है। शास्त्र दान करने से एक ओर हम अपने गुरुओं के स्वाध्याय और साधना में, अपनी भूमिका निभाते हैं और वहीं विद्यार्थियों को पुस्तकें आदि दान करने से या किसी बच्चे की पढ़ाई की व्यवस्था करने से हम उसके ज्ञानार्जन में सहयोग दे सकते हैं। मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव आदि किसी को भी निर्भय बनाना, बचाना, जीवन को अभय दान देना अपने आप में बहुत बड़ा दान है। मुनिराजों, गुरुओं के आहार व्यवस्था में समर्पित भाव से सहयोग देना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है। हम मनुष्य हैं और जिस धरती पर रहते हैं वहां देश के सभी बंधु अपने ही हैं ऐसा भाव रखते हुए, जहाँ भी, जिसे भी अन्न की आवश्यकता हो, उसे अन्न भोजन आदि उपलब्ध कराना, यथा सम्भव पशु-पक्षियों के लिए भी स्नेहपूर्वक भोजन-पानी की व्यवस्था करना भी हम सभी का परम कर्त्तव्य है। बस यहाँ पर एक बात ध्यान रखना आवश्यक है कि दान हमेशा ‘सुपात्र’ को ही देना चाहिए। कुपात्र को दिया गया दान व्यर्थ होता है। सुपात्र और कुपात्र को पहचानना हमारे विवेक और बुद्धि पर निर्भर करता है। किन्तु हमें हमेशा दान की शुभभावना रखते हुए हमेशा यथाशक्ति दान करना चाहिए।
कहा भी गया है कि –
“त्याग करो सब जड़ वस्तु का, साथ नहीं वह जायेगा,
त्याग करेगा उन सबका जो, मुक्ति रमा को पायेगा,
एक त्याग के कारण देखो, सिंह स्वर्ग का देव हुआ,
कालान्तर में वह प्राणी ही, वीर प्रभू महावीर हुआ ।।”
( जाप मंत्र – ऊँ हृीं श्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय नम:)