वर्तमान दिगम्बर जैन सन्तो के गुरुणामगुरु,श्रमण परम्पराजनक,मुनि धर्म सम्राज्य नायक त्रय महामुनिराज आचार्य श्री आदिसागर जी भगवन्त, चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी भगबन्त व आचार्य श्री शांतिसागर जी छाणी भगबन्त-
भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के 1300 वर्ष पश्चात भारत मे हुए विदेशी आक्रांताओं की अनैतिक कृत्यों की वजह से दिगम्बर जैन मुनियो का परम्परागत रूप से अभाव हो गया
जिसमे 20वी सदी के प्रारम्भ में इन तीन महामुनियों ने कुछ कुछ अंतराल में जैनश्वरी वीतरागी दीक्षा धारण की
1.आचार्य देव श्री आदिसागर जी अंकलिकर स्वामी-मुनि दीक्षा सन 1913 कुथलगिरी सिद्धक्षेत्र पर
2.चरित्र चक्रवर्ती आचार्यदेव श्री शांतिसागर जी स्वामी-मुनि दीक्षा सन 1920 यरनाल में
3.आचार्यदेव श्री शांतिसागर जी स्वामी छाणी वाले-मुनि दीक्षा सन 1923 सागवाडा के जूना मन्दिर में
इन त्रय महामुनियों में आपसी अपार स्नेह,सम्मान था,आचार्य देव श्री आदिसागर जी स्वामी से चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी दक्षिण का दीक्षा पूर्व व बाद में भी अनेको बार मिलन हुआ यहा तक कि सन 1944 में उदगाव में जब आचार्य श्री आदिसागर जी स्वामी सल्लेखना की ओर अग्रसर थे तब चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी स्वामी भी ससँग सम्मिलित हुए थे। जो इन महामुनियों के अनेको वर्षो से आपसी स्नेह व आदर की मिसाल थी।
वही राजस्थान के ब्यावर नगरी में इन दोनों शांतिसागर जी आचार्य भगवन्तों का साथ साथ वर्षायोग हुआ था
जिस तरह भगवान “आदि”नाथ के बिना व आत्मिक “शांति” के बिना धर्म अधूरा है ठीक उसी तरह आचार्यदेव श्री आदिसागर जी अंकलिकर स्वामी व द्वय आचार्य श्री शांतिसागर जी स्वामी(दक्षिण व छाणी) के बिना वर्तमान में विराजित श्रमण परम्परा के विशाल सन्तो की श्रंखला की कल्पना भी नही की जा सकती
ये तीनो महामुनि भगवन्त सम्पूर्ण जैन शांसन के लिए समान रूप से बिना भेदभाव के अवश्यमेव पूजनीय है
जो महानुभाव एक सन्तवाद को लेकर सनकीर्णता व भेदभाव को अपनाता है वो निश्चित ही इन श्रेष्ठतम महामुनियों के आदर्शो का अनादर करता है
विश्व सूर्य-धर्म रवि आचार्यदेव श्री आदिसागर जी भगवन्त का संक्षिप्त परिचय-
1.जन्म-सन 1866 में अंकली गाँव महाराष्ट्र में हुआ अतः आप अंकलिकर स्वामी कहलाए
2.मुनि दीक्षा-सन 1913 में कुथलगिरी सिद्ध क्षेत्र महाराष्ट्र में हुई
3.सात उपवास के बाद ही आहार करते थे अतः आप सप्तोपवासी कहाए उस सात दिनों के बाद होने वाले आहार में भी जल के अलावा एक ही वस्तु ग्रहण करते थे
4.आहारचार्य के अलावा सम्पूर्ण समय गुफाओं व जंगलो में ध्यान-साधना में ही व्यतीत करते थे
5.सन 1915 में जयसिंहपुरा में आपको आचार्य पद पर सुशोभित किया गया
6.आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी ऋषिराज आपके शिष्य रत्नों में सबसे श्रेष्ठ तपस्वी-ज्ञानी रत्न हुए
7.सन 1944 में आपने सबसे होनहार शिष्य महावीरकीर्ति जी को अपना आचार्य पद दिया जिससे अंकलिकर पट्ट परम्परा प्रारम्भ हुई एवम 14 दिनों की कठोर उपवास साधना सहित समता पूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया,साधर्मी अग्रज साधक की उत्कृष्ट समाधि साधना के दर्शनार्थ चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी,आचार्य श्री वीरसागर जी,आचार्य श्री देशभूषण सागर जी सहित अनेक दिग्गज महान साधु भगवन्त उदगाव की धरा पर विद्यमान हुए थे
8.आचार्य आदिसागर जी अंकलिकर स्वामी की तपस्या व श्रेष्ठ चर्या की ख्याति इस तरह फैल चुकी थी सन 1925 से 1938 के मध्य ही लगभग आठ अन्य आदिसागर नाम के सन्त अन्य गरुओ से दीक्षित हुए जिससे आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलिकर स्वामी के जीवन इतिहास को लेकर कई विद्वान स्वयं भी भ्रमित रहे व दुनिया को भ्रमित करते रहे जो ऐसे परम्पराजनक महान तपस्वी की अवहेलना,उपेक्षा व अनादर के रूप में एक गम्भीर पाप हुआ जो विज्ञ जनो द्वारा नही होना चाहिए था
9.आपके द्वितीय पट्टचार्य श्री महावीरकीर्ति जी ऋषिराज उनके शिष्य वात्सल्यरत्नाकर आचार्य श्री विमलसागर जी ऋषिराज जिनकी ही अनुमोदना पर उनके शिष्य महातपोमार्तण्ड आचार्य श्री सनमतिसागर जी ऋषिवर को दादागुरु द्वारा तृतीय पट्टाचार्य पद प्रदान किया गया इस तरह इन सभी महान आचार्यो ने इस गौरवशाली सन्त परम्परा की त्याग-तपस्या-ज्ञान-ध्यान साधना को विश्व शिखर पर आलोकित किया,वर्तमान में इस परम्परा में चतुर्थ पट्टचार्य। के रूप में आचार्य श्री सुनिलसागर जी गुरूराज अपने समस्त पूर्वाचार्यो के पवित्र संस्कारो व श्रेष्ठ साधना मयी विरासत का जीवंत दर्शन दे रहे है
गुरुणामगुरु श्रमण परम्परा के मुकुटमणि आचार्य भगवन्त श्री आदिसागर जी भगवन्त के 155वे अवतरण दिवस वर्ष पर तीनों परम्पराजनक महामुनियों को कोटिशः नमन
शब्दसरिता-शाह मधोक जैन चितरी
नमनकर्ता-श्री सुनिलसागर युवासंघ भारत