डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव,दिल्ली
( विदुषी , लेखिका,समाज सेविका)
“मान कारण सद्भवेपि य भाव मृदु स्वभावतः,
स उत्तम मार्दव भवेत महान गुण साधन:।”
अर्थात् अभिमान का कारण होते हुए भी मृदु स्वभाव से अहंकार नहीं करना “उत्तम मार्दव” धर्म है । यह मृदुता धर्म महान् गुणों का साधक है।
मान आत्मा का स्वभाव नहीं है इसलिए जब तक जीवन में किसी भी प्रकार का अहंकार है तब तक जीवन में आत्मदर्शन सम्भव नहीं है फिर भी व्यक्ति अपने जीवन में कई प्रकार की मान कषाय को लेकर जीता है। मनुष्य अपने ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और रूप आदि का घमंड करता है और इस अभिमान को ओढ़कर प्रसन्न होता है जबकि यह अभिमान पापबंध का कारण है। अभिमान उस व्यक्ति को कुछ और सीखने ही नहीं देता। मनुष्य को यदि आत्म कल्याण करना है तो इस मान को गलाना होगा और “मृदुता” का विकास करना होगा।
डॉ. अनेकान्त जैन ने अपनी पुस्तक “दसधम्मसारो” में “उत्तम-मज्जवं” को प्राकृत भाषा की गाथा में अत्यंत सरलता से समझाया है –
“मज्जवप्पसहावो य माणाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे जहा य सम्मतं हवइ अप्पम्मि ।।”
अर्थात् मार्दव आत्मा का स्वभाव है, वह मान कषाय के अभाव में सम्यक्त्व आत्मा में प्रगट होता है।
दशलक्षण धर्म के प्रथम दिवस “क्रोध” मिटाने के लिए मनुष्य “उत्तम क्षमा” रूपी औषधि से मन को स्वच्छ करता है और अपनी गलतियों की क्षमा याचना करते हुए, दूसरे की ग़लतियों को दिल से क्षमा करता है।
दशलक्षण महापर्व मेंं दूसरे दिन उत्तम मार्दव की आराधना की जाती है। हमारी आत्म विकास यात्रा का दूसरा पड़ाव है मार्दव धर्म ।हमने क्रोध कषाय का अभाव कर क्षमा को धारण करने का प्रयास शुरू किया है तो साथ मान कषाय को भी दूर करना होगा , नहीं तो यात्रा रुक जाएगी ।
मार्दव अर्थात मृदुता का भाव। मृदुता से कोमलता, सहजता आती है । मान से मन मलिन होता है, मान का दूसरा नाम अहंकार है। अहंकार से बड़े-बड़े लोग पतन के गर्त में गिरे हैं ।
आचार्य समन्तभद्र रचित “रत्नकरण्ड श्रावकाचार” में ‘मान’ आठ प्रकार का बताया गया है -:
“ज्ञानं- पूजां कुलं जातिं बलं ऋद्धिं तपो वपु:,अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मय:।”
सभी गुरुजन और आगम-शास्त्र यही बताते हैं कि मनुष्य को कभी भी किसी भी प्रकार का अहंकार नहीं करना चाहिए। कोई भी चीज़ स्थिर नहीं है।उत्तम मार्दव धर्म का पालन करने से जीवन श्रेष्ठ बनता है।
मृदुता,विनम्रता ये मनुष्य के स्वाभाविक गुण हैं किन्तु मनुष्य उत्तम ज्ञान,पूजा,कुल,जाति,बल,तप,ऋद्धि,शरीर आदि का अभिमान करने में ही शान समझता है। मनुष्य यह भूल जाता है कि इस दुनिया में हम न कुछ साथ लाए हैं और न ही कुछ साथ ले जाएंगे यदि साथ जाएंगे तो वो हैं हमारे कर्म । गुण,कर्म,ज्ञान ही हमारी आत्मा के साथ स्थित रहता है बाकी सब पीछे छूट जाते हैं।
जीवन से हम कब, कहां ,कैसे विदा होंगे ये कोई नहीं जानता । किन्तु जीवन और मृत्यु के बीच का पूरा अवसर हमारे ही हाथ में है । यदि हम सहज रहते हुए इसका सदुपयोग आत्मचिंतन और सेवाभाव के साथ सद्कार्यों में करते हैं तो हम अपने जीवन का एक आदर्श स्थापित कर सकते हैं। किन्तु यदि हम इस समय को छल,कपट,माया,क्रोध,लोभ के वशिभूत होकर बुरे कार्यों में लगाते हैं या अपनी हर चीज़ पर अभिभान करते हुए बिताते हैं तो हम अपना यह जीवन भी बेकार करते हैं और और अपना अगला भव भी बिगाड़ लेते हैं। अत: हमें अपने जीवन में विवेक से कार्य करते हुए ,सहज,सरल रहते हुए अपने मन की बुराइयों को दूर करके अपने स्वभाव के सहज गुण को प्राप्त करना चाहिए।उत्तम क्षमा, मार्दव ,आर्जव, सत्य, शौच, संयम,तप,त्याग, आकिंचन्य,ब्रह्मचर्य ये सभी धर्म के दशलक्षण हमारी आत्मा में स्वाभाविक रूप से स्थित रहें , प्रत्येक व्यक्ति का उद्देश्य होना चाहिए।
मन ,वचन और काय से ही जीवन में विचार एवं कार्यप्रक्रिया होती है और यदि हम अपने मन, वचन और कर्म में किसी भी प्रकार की वक्रता ,दोष को स्थान नहीं देंगे तो मार्दव धर्म, मदुता का गुण हमारे जीवन में हमेशा स्थित रहेगा।
जहाँ अपने अस्तित्व के प्रदर्शन का अभाव है दूसरे की सहज स्वीकृति है वही मार्दव धर्म है “मार्दव” का अर्थ है-‘मृदुता’ और उत्तम का अर्थ है -‘श्रेष्ठ’ अर्थात् जहाँ श्रेष्ठ मृदुता है वहीं मार्दव धर्म है।मार्दव धर्म आत्मा अर्थात् निजात्मा, स्व-स्वरूप का धर्म है। जहाँ मृदुभाव या नम्रता नहीं है वहाँ धर्म भी नहीं है। यदि हमारे चित्त में मृदुता है,व्यवहार में नम्रता है और हम सभी के प्रति विनम्रता का भाव रखते हैं तभी हम सम्यक् रूप में धर्म के विशेष गुण मार्दव धर्म का पालन कर सकते हैं।
कहा भी गया है कि –
रूप अनोखा पद ऊँचा,अरू पैसा तेरे पास घना।
क्यों इनका अभिमान करे तू,यह है कोरा सपना।।
नहीं रहेगा रूप रंग यह,पद पैसे की कुछ दिन शोभा।
सहज भाव से जी ले प्यारे,मत खा इनसे धोखा।।
पेड़ जितने ज़्यादा घने और फलदार होते हैं उतने ही ज़्यादा विनम्र होते हैं। ऐसे ही व्यक्ति को भी सदैव विनम्र रहना चाहिए कभी भी किसी बात का अभिमान नहीं करना चाहिए। मान मत करो यानि अहम मत पालो,अहंकारी व्यक्ति को कोई भी पसंद नहीं करता है सभी के प्रति विनय भाव रखने वाले को हर हृदय में स्थान मिलता है। हम अपने हृदय में विनम्रता को धारण करके सभी का स्नेह और सम्मान प्राप्त तो करते ही हैं साथ ही जीवनभर “उत्तम मार्दव” की आराधना करके अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
मंत्र – ऊँ हृीं श्री उत्तममार्दवधर्मांगाय नम: