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भगवान नहीं देखे थे हमने
भगवंत स्वरूप को देखा है
ऐसे गुरुवर आचार्य श्री
विद्यासागर को देखा है
वीतरागी परम दिगम्बर
श्रमण संस्कृति के सूर्य थे
उत्तम क्षमादि धर्म के धारी
महाव्रतों से पूर्ण थे
आभ्यंतर-बाह्य तपों और
रत्नत्रय के ग्राही थे
परीषहों को सहज ही सहते
वे महान् समताधारी थे
ज्ञान के सागर जिन आराधक
आगमवेत्ता विद्यासाधक
चर्या ऐसी, जो भी देखे
हो जाये वो ही नतमस्तक
वे महासंत वे ज्ञानेश्वर
आदर्श बने वे मुनीश्वर
ज्ञाता-दृष्टा, एकत्व भाव
तीर्थंकर स्वरूप वे योगीश्वर
मूकमाटी महाकाव्य से जिन्होंने
जीवन-दर्शन को समझाया
गागर में सागर को भरकर
अध्यात्मदिशा को दिखलाया
जैनागमों के तत्त्वदर्शन को
जीवन में सम्यक् अंगीकार किया
संस्कृत शतक साहित्य को रचकर
अनुपम अमृत प्रसाद दिया
“इंडिया नहीं भारत कहो”
ये उनका ही है नारा
भाषा हिंदी और हथकरघा से
स्वाबलंबन का बीज है बो डाला
शरद पूर्णिमा के चंद्र सा
तमस में उजियारा था
विद्याधर, भारत में जन्मा
ऐसा ही ध्रुव तारा था
कुन्दकुन्द के कुंदन से
हो गए स्वयं ही समयसार
वाणी से कुंदन किया जगत
दे गए सभी को संस्कार
मूलगुणों के धारक वे
श्रमणोपासक कहलाये
वर्तमान के वर्धमान वे
संत शिरोमणि कहलाए
शरीर का अंतिम समय जान
सल्लेखना का संज्ञान लिया
ब्रह्ममुहूर्त की पूर्व बेला में
समाधि पूर्वक प्रयाण किया
अहो-भाग्य अपना-सबका है
साक्षात दर्शन का सौभाग्य मिला
आहार दान और, वैयावृत्ति
आदि का पुण्य-लाभ मिला
हज़ारों शिष्यों को वे
पारस बनाकर चले गए
साधक जीवन को वे
सार्थक बनाकर चले गए
ऐसे गुरु भगवंत को
भक्त ‘अरिहन्त’ नमोस्तु करता है
भावी मोक्षगामी संत को
त्रिकाल वंदन करता है
बारम्बार वंदन करता है “
- डॉ. अरिहन्त कुमार जैन ‘अनुरागी’
असिस्टेंट प्रोफेसर, जैन अध्ययन केंद्र,
सोमैया विद्याविहार यूनिवर्सिटी, मुम्बई
संपादक – प्राकृत टाइम्स इंटरनेशनल न्यूज़लेटर
मो. 9967954146
ईमेल – drarihantpj@gmail.com