मुनि परम्परा के गौरव, आचार्य परम्परा के शिखर, चर्या के मूलाधार , समता के समयनुसार, संकल्प के महाभट्ट- चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज। मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी पूंजी, अच्छे विचार, अच्छे संस्कार और अच्छा स्वाभाव। इन सब गुणों से हरे भरे व्यक्तित्व का नाम था चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज। उन्होंने बाल्यकाल में भले ही ग्रन्थ ना पढ़े हों, परंतु निर्ग्रन्थ होने की ललक बचपन से ही थी। उनके धर्म निष्ठा पिता भीम गौड़ा पाटिल एवं धर्म परायण माता सत्यवती से प्राप्त संस्कारो के बल पर—
18- वर्ष की बाल्यकाल में बिस्तर पर सोने का त्याग कर दिया।
25- वर्ष की उम्र में जूते चप्पल का त्याग कर दिया। 32 वर्ष की उम्र में घी, तेल का त्याग कर, एक बार भोजन करने का नियम ले लिया औरएकांत व्रत ले लिया, जिसमें 1 दिन भोजन 1 दिन उपवास किया जाता है। यह सब शरीर के प्रति अनाशक्ति का परिचय था।
41 वर्ष में गृह त्याग करके देवेंद्र कृति मुनिराज के क्षुल्लक, एकल और जैनेश्र्वरी दीक्षा को धारण कर, पाच वर्ष बाद आचार्य बनकर संपूर्ण दिगंमबरत्व एक नई पहचान दी।
चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री ने साधना काल में 9938 उपवास करके श्रेष्ठतम समाधि का वर्णन किया 66 की समाधि उत्सव पर मेरे अत्यंत प्रणाम। उनकी साधना समाधि का अतीत मेरा भविष्य बने यही प्रार्थना गुरुदेव से …!!!