‘आर्जव सीधा बांस है उसकी टेड़ी जड़ नहीं’

#उत्तम आर्जव धर्म:  जो न कुटिल चिंतन करता है न शरीर से कुटिलता करता है, न कुटिलत बोलता है और नहीं अपने दोषों को छिपाता है उसके आर्जव धर्म होता है। जो भव्य जीव निजकृत अतिचार आदि दोषों को नहीं छुपाते हैं तथा किए हुए दोषों की निंदा व, प्रायश्चित आदि करते हैं उनके आर्जव धर्म होता है। सरल परिणामों को आर्जव कहते हैं।

परिणाम दो तरह के होते हैं (1) सरल परिणाम (2) छल कपट भरे परिणाम। उत्तम आर्जव धर्म कहता है कि सरल परिणामी बनो, छल कपट और मायाचारी से बचो क्योंकि जो दुसरों को छलता है, तो अपनी ही आत्मा में छाले पड़ते हैं।

मायाचारी करने से छल कपट करने से धन संपदा नहीं मिलती, कार्य की सिद्धि नहीं होती। संपदा और कार्यसिद्धि तो पुण्य से मिलती है। छल कपट करने से आदमी दूसरों की नजरों में नहीं खुद की ही नजरों से भी गिर जाता है।

यहां तक कि माता-पिता, भाई, बहन, पत्नी, पुत्र का भी उससे विश्वास उठ जाता है। भगवान महावीर कहते है कि आर्जव भाव पूर्वक अपने मन को सरल और पवित्र बनाएं। मन सरल और पवित्र होगा तो वाणी पवित्र हो जाती है, और वाणी की पवित्रता से मन भी मन भी पवित्र हो जाता है।

फिर उस तन से जो भी किया जाता है सारे जग का कल्याण हो जाता है। यही आर्जव धर्म है। मनुष्य दोहरा जीवन जी रहा है, एकांत में शराब और समाज में पानी छान कर पी रहा है। मनुष्य के विचार एवं  व्यवहार में कोई सांमजस्य नहीं है।

वह जो सोचता है, वह बोलता नहीं है और जो बोलता है वह करता नही हैं। मनसा, बाचा, कर्मणा वह बहुरूप है अतह: मनुष्य की जिंदगी बहुरूपिए की जिंदगी बन गई है।

अंतर्मना आचार्य १०८ प्रसन्न सागर जी महाराज

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