आज जब एक तरफ जहां हमारे हजारों जैनी भाई-बहनों जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है या बिल्कुल अच्छी नहीं है खासकर निम्नवर्गीय जैनों जिनको सरकार से कोई सरकारी आरक्षण नहीं मिलता है वहीं दूसरी तरफ हमारी जैन संस्थाएं, ‘जीतो’ जैसी संस्थाओं द्वारा करोड़ों रूपए दानवीर बनने और फोटो खिचवाने की होड़ में खर्च किए जा रहे हैं।
हमारे समाज के अमीर भाई यही पैसा अपने समाज के ही निम्नवर्गीय जैन भाइयों के आर्थिक विकास पर खर्च करें यहां ध्यान रहे कोविड-19 से उत्पन्न हुए हालातों को देखते हुए तो इससे आर्थिक रूप से कमजोर जैन भाईयों की मदद भी होगी और जिनशासन की सेवा सच्ची सेवा भी होगी। यह जो बड़े-बड़े शहरों में खाना खिलाने की होड़ चल रही है क्या वह एक तरह से वाहवाही लूटने का जरिया नहीं है? बंबई और बंगलोर में कई ऐसी संस्थाएं है जो हजारों खाने के पैकिट बनाकर वितरण कर रहीं हैं जिनमें काफी सारे ऐसे ही फेंक दिए जाते हैं। महानगरों में बिना जरूरतों वाले इलाकों में पचास-पचास हजार खाने के पैकिट वितरित किए जा रहे हैं, जिनकी जरूरत जितनी ही ‘हास्यास्पद’ है उतनी ही ‘विवादास्पद’ है।
जैसा कि आचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज ने कहा है कि पच्चीस करोड़ रूपए में पचीस सौ जैन परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है। एक मोटे हिसाब से अगर सभी जैन संस्थाओं ने मिलकर पांच सौ करोड़ भी दान किए हैं तो उनसे पचास हजार जैन परिवारों का उत्थान किया जा सकता था। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे समाज के ठेकेदार तो इन पैसों से दानवीर की उपाधि लेने और फोटो खिचवाने तथा विदेशों में अय्याशी के लिए करने में ज्यादा ललायित हैं। कहां जा रहे हैं ये लोग, जो भामाशाह की उपाधि के चक्कर में समाज का पैसा गलत रास्तें में खर्च कर रहे हैं। जिसका आभार हमें कुछ ही दिनों में विपरीत ही मिलेगा।
सरकार के पास लाखों-करोंड़ों रूपए हैं वह सबका ध्यान रख सकती है और रख भी रही है। अभी हाल ही में सरकार ने लगभग बत्तीस हजार करोड़ रूपए सिर्फ दिवाली बोनस एक प्रतिशत लोगों को दिया है जो कि पॉकेटमनी की तरह है। तो बाकि नन्यानवें प्रतिशत लोगों के लिए सरकार सोचो कितना खर्च कर सकती है। सरकार चाहे तो इसका दस गुना पैसा भी खर्च कर सकती है। लेकिन हमारे स्वाभिमानी जैन गरीब परिवारो की मदद कौन करेगा। जब हमारे समाज के जैन भाई ही नहीं करेंगे। इसलिए मेरा जैन समाज से विशेष अनुरोध है कि पहले आप अपने जैन भाई- बहनों की मदद करें। इस गलतफहमी में न रहे कि सारे जैन अमीर हैं।
शायद आपको पता होगा कि जैन धर्म के अनुयायी हर प्रांत में हैं और हर जाति और भाषा के लोगों में हैं जैसे मराठी, कन्नड, मलयाली, तमिल, बंगाली सरक जैन समाज जिनकी आर्थिक स्थिति बद से बदतर है। वह धर्मांतरण के लिए मजबूर हैं। इतिहास भी इसका गवाह है। धर्मांतरण पहले भी हो रहा था और आज भी हो रहा है। और तो और राजस्थानी व गुजराती जैन परिवार जिनकी संख्या हजारों में है उनकी स्थिति बदतर है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के जैन परिवारों को भी गिनो तो हालात बड़ी दयनीय है। इन परिवारों को तो कोई सरकारी आरक्षण या सुविधा भी नहीं मिलती। हमारा कर्तव्य बनता है कि हम पहले आार्थिक रूप से कमजोर जैन परिवारों की सहायता करें।
हमारे गुरू भगवंत भी कहते है कि गलत जगह दिया हुआ दान अपने पैरों पर ही नहीं अपितु अपने भविष्य और अस्तित्व पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। हाल में देखा गया है कि जहां जैन परिवारों की संख्या कम है व आार्थिक रूप से कमजोर है वहां स्थानीय निवासी जैन परिवारों को मारने व दबाने के प्रयास में रहते हैं। हम अपने पैसों का बहुत आडंबर करते है और उनकी धरती पर भामाशाह बनने के चक्कर में सारे समाज का नुकसान कर रहे हैं। नाम आप कमाओगे और समाज उसका खामियाजा भुगतेगा। हमारा ध्यान सिर्फ जैन भाईयों की तरफ होना चाहिए जिससे जैन धर्म की रक्षा हो सके और हमारी भावी पीढ़ी को भी अच्छी परवरिश मिल सके। परन्तु कुछ लोग तो भामाशाह ही बनेंगे और अपने बच्चों को इसाई स्कूल में ही पढ़ाएंगे, चाहे कुछ भी हो जाए।
‘जागो समाज के ठेकेदारों जागो। पहले अपने जैन भाइयों की मदद करो फिर पूरी दुनिया में दान करों इन सुविचारों से मेरी धारणा है कि कुछ तो बदलेगा। याद रखें पांच सौ करोड़ से पचास हजार जैन परिवारों को उपर उठा सकते हैं। तो क्यों न हम इस विषय में सोंचे।
एक खास बात- जैन धर्म के ट्रस्टी कहते है कि मंदिर का पैसा देवद्रव्य है जो सामाजिक कार्यों में नहीं लगता लेकिन देखा गया है कि कई मंदिर कमेटियों ने लाखों रूपए राहत कार्य में दिए हैं जो जिन धर्म पर खर्च नहीं हो रहा। यह देवद्रव्य समाज के निम्नवर्ग पर क्यों खर्च नहीं हो रहा।
जैन मंदिरों के ट्रस्टियों, दानवीरों और जीतो के व्यापारियों से गुजारिश है कि क्यों आप लोग मान-सम्मान, अभिमान, दानवीर की उपाधि के लिए समाज को गुमराह कर रहे हो, जैन समाज के अस्तित्व को खतरे में डाल रहे हो।
श्रीमती ममता गांधी
लेखिका जैनाचार पत्रिका की सम्पादक हैं।