जैन कहानियाँ- भाग-31

… 🙏🏻 जय जिनेन्द्र 🙏🏻 …

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“कर्मों ने किसी को नहीं छोड़ा”

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कंस के वध के पश्चात द्वारिका में आकर बसे यादवों का सोलह कलाओं में विकास हुआ और द्वारिका अत्यन्त फलने फूलने लगी। इसका पता जरासंध को लग गया व उसने श्रीकृष्ण व यादवों को झुकाने का प्रयास किया। उनके बीच में घमासान युद्ध हुआ व यादव विजयी हुए, जरासंध मारा गया व श्रीकृष्ण वासुदेव बने।

श्रीकृष्ण की तीनों खण्डों में अत्यन्त आन–शान थी। नेमिकुमार जो उनके चचेरे भाई थे, वे उनसे अत्यन्त शक्तिशाली एवं प्रतापी थे, वे कदाचित उन्हें पराजित करके राज्य ले लेंगे, ऐसी श्रीकृष्ण के मन में शंका थी, जो नेमिकुमार के जैनेश्वरी दीक्षा लेकर वन-गमन करने से उक्त शंका भी निर्मूल हो गयी थी।

द्वारिका में सर्वत्र शान्ति व सुख का साम्राज्य था। देवकी अपने पुत्र के यश एवं तेज प्रताप से हर्षित होती हुई प्रसन्नता से अपना जीवन यापन कर रही थी।

मध्यान्ह का समय होने को था सूर्य की किरणें द्वारिका के महलों पर लगे स्वर्ण कलशों से प्रतिबिंबित होकर धरती को उष्णता प्रदान कर रही थी। उस समय दो मुनि आकाश मार्ग से गमन करते हुए आये व देवकी ने उन्हें भक्ति-भाव से आहार दिया व दोनों मुनि धर्म वृद्धि हो ऐसा आशीर्वाद देकर अपने स्थान को चले गये। मुनि तो अपने स्थान को चले गये परन्तु उनके मुखारविंद एवं कांति को स्मरण करते हुए देवकी कुछ समय तक स्तब्ध खड़ी रह गयी। जो स्नेह व वात्सल्य भाव देवकी श्रीकृष्ण को देख कर महसूस करती थीं वैसा ही भाव उन्हें मुनि-युगल को देख कर हुआ।

देवकी अभी इसी उधेड़बुन में थी कि उसे फिर से मुनि-युगल आहार ग्रहण कि मुद्रा में आते हुए दिखाई दिये। निर्ग्रन्थ मुनि तो दिन में एक ही बार आहार लेते हैं, ऐसा सोचते हुए वह उन्हें बगैर कुछ कहे भक्ति भाव से आहार करवाने लगी। इस बार भी उसे ऐसा लगा जैसे उसके स्तनों से दूध झरना शुरू हो गया है और पुत्र को देख कर जैसा माता को भाव होते हैं वैसा प्रतीत हुआ। देवकी अपने मन में कुछ घबराई सी कुछ सकुचाई सी थी कि उसी तरह फिर से उसे मुनि-युगल आते हुए दिखाई दिये व फिर से उसने उन्हें भक्ति भाव से आहार दिया व मुनि धर्म लाभ हो ऐसा आशीर्वाद देते हुए अपने स्थान को चले गये।

मुनि-युगल तो चलै गये परन्तु देवकी का चित्त उनकी ओर से हटा ही नहीं। मुनियों की वाणी, तेज और कांति देख कर वह आश्चर्य चकित थी। उसे अपने वात्सल्य भाव का और अपनी छातियों से दूध का झरना स्तब्ध किये हुए था। इस के पीछे होने वाले रहस्य को जानने के लिए वह उत्सुक थी।

देवकी रात्रि भर सो न पायी रह-रह कर उसे मुनि-युगल का आना व एक बार नहीं, तीन-तीन बार आहार के लिए आना सोच में डाले हुए था। कहीं मुनि-युगल पथभ्रष्ट तो नहीं हो गये? कहीं उन्हें समय का ख्याल ही ना रहा हो !

प्रात:काल होते ही देवकी प्रभु नेमिनाथ के समवशरण में गयी व भगवान की दिव्य ध्वनि खिरने के बाद प्रभु से प्रश्न किया–प्रभु ! कल मेरे घर आहार ग्रहण करने को आये मुनि-युगल को देख कर अत्यन्त उल्लास और श्रीकृष्ण के समान वात्सल्य भाव क्यों उत्पन्न हुआ? और वे मुनि-युगल तीन-तीन बार आहार के लिए क्यों पधारे ?

भगवान ने कहा–देवकी वे तेरे पहले पुत्र हैं जिन्हें देव ने सुलसा को सौंपा था ! सुलसा उनकी पालक माता है व तु ही उनकी जननी है और वह दो नहीं एक समान शक्ल और आकृति वाले होने से तुझे दो जान पड़े जबकि वे तीन बार जो आये वह तेरे छः पुत्र हैं जो अपने कर्मों के बंधन काटने को जैनेश्वरी दीक्षा धारण किये हैं।

देवकी का रोम-रोम पुलकित हो उठा ! हर्ष मिश्रित वाणी से वह रोते–रोते बोली–भगवान ! मुझे कोई दुःख नहीं है, दुःख है तो केवल इतना ही कि सात-सात पुत्रों की माता होते हुए भी मैं इन सातों को कुछ लालन पालन न कर सकी। छ: पुत्रों का लालन पालन सुलसा से किया, श्रीकृष्ण का यशोदा ने, मैं पुत्रवती होकर भी स्तनपान कराये बिना रही।

देवकी खेद न कर–संसार की समस्त वस्तुओं की प्राप्ति और अप्राप्ति में लाभ और अलाभ में पूर्व भव में किये हुए कर्म महत्व रखते हैं, कारणभुत होते हैं ! तूने पूर्व भव में अपनी सौतन के सात रत्न चुराए थे और जब वह अत्यन्त रोई थी तो तूने एक रत्न उसे वापस लौटा दिया था और छ: रत्नों को तुने छिपा दिया था। इसी कारण से तेरा वह पूर्व भव का किया कर्म उदय में आया व एक पुत्र श्रीकृष्ण तो तुझे वापस मिला परन्तु छ: पुत्रों से तुझे वंचित रहना पड़ा।

देवकी पश्चाताप करती हुई द्वारिका को प्रस्थान कर गयी।

किये हुए कर्मों का फल तो भोगना ही पड़ेगा ! भले ही उसमें कुछ देर-सवेर हो जाए।

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🙏🏻🙏🏻 जैन धर्मोस्तु मंगलम 🙏🏻🙏🏻

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