‘शौच पावन गंगा है, गंदा नाला नहीं, मोक्ष द्वार की चाबी है, अवरोधक ताला नहीं’

 

उत्तम शौच

उत्तम शौच का अर्थ है, लोभ कषाय का नाश करना। जीवन लोभ या लालच से मलिन है और शौच धर्म से पवित्र होता है। शौच का अर्थ है पवित्रता। लोभी व्यक्ति हमेशा जोड़ने में ही लगा रहता है, भोगने का उसे समय ही नहीं मिलता और जिसे भोगने का समय न मिले, तो छोड़ने की तो बात ही करना बेकार है।

पशुओं का लोभ पेट भरने तक सीमित है। लेकिन मनुष्य का लोभ मात्र पेट भरने तक सीमित नहीं, वह तो पेटी भरने की सोचता है। पेटी भी ऐसी पेटी जो श्मशान तक भी नहीं भरी जा सकती। लोभ कई प्रकार के होते हैं। पैसों का ही लोभ लोभ नहीं है रूप और नाम के लोभ में पैसों का लोभ नहीं देखते।

रूप और नाम की खातिर पानी की तरह पैसा बहा देते हैं। इसलिए पैसों के लोभ से ज्यादा खतरनाक लोभ नाम और रूप का है। भगवान महावीर ने कहा है, ‘स्वर्ग और मोक्ष की कामना करना भी लोभ का ही एक रूप है’ इसलिए आदमी को सतकर्म और सत साधना करनी चाहिए। उससे मिलने वाले फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए।

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धन मंजिल नहीं मार्ग है, धन तो हाथ का मैल है उस पर जीवन न्योछावर करना निरी मूर्खता है। दुनियां में चार प्रकार के लोग हैं – कंजूस, मक्खीचूस, उदार और दाता।

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जो खुद तो खाता है दूसरों को नहीं खिलाता वह कंजूस। जो न खुद खाता है, और न ही दूसरों को खिलाता है वह मक्खीचूस। जो स्वयं भी खाता है और दूसरों को भी खिलाता है वह उदार। जो स्वयं न खा कर दूसरों को खिलाता है और जीवन भर खिलखिलाता है वह दाता।

आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज

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