योग विद्या के प्रवर्तक हैं ऋषभदेव

भारत में प्रागैतिहासिक काल के एक शलाका पुरुष हैं- ऋषभदेव, जिन्हें इतिहास भी काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता है। किंतु वे आज भी भारत की सम्पूर्ण भारतीयता तथा जन जातीय स्मृतियों में पूर्णत: सुरक्षित हैं। इतिहास में इनके अनेक नाम मिलते हैं जिसमें आदिनाथ, वृषभदेव, पुरुदेव आदि प्रमुख हैं| भारत देश में ऐसा विराट व्यक्तित्व दुर्लभ रहा है जो एक से अधिक परम्पराओं में समान रूप से मान्य व पूज्य रहा हो। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हुए हैं। जन-जन की आस्था के केंद्र तीर्थकर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ था तथा इनका निर्वाण कैलाशपर्वत से हुआ था। आचार्य जिनसेन के ‘आदिपुराण’ में तींर्थकर ऋषभदेव के जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है।

भागवत पुराण में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है । वे आग्नीघ्र राजा नाभि के पुत्र थे। माता का नाम मरुदेवी था। दोनो परम्पराएँ उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कौसलराज का मानती हैं। जैन परम्परा के चौबीस तींर्थकरों में ये एक ऐसे प्रथम तींर्थकर हैं, जिनकी पुण्य-स्मृति जैनेतर भारतीय वाड्.मय और परंपराओं में भी एक शलाका पुरुष के रूप में विस्तार से सुरक्षित है। यही तींर्थंकर ऋषभदेव आदि योगी भी माने जाते हैं जिन्होंने सर्वप्रथम  योग विद्या मनुष्यों को सिखलाई |

‘योग’ सम्पूर्ण विश्व को भारतीय संस्कृति की एक विशिष्ट और मौलिक देन है  । भारत में ही विकसित लगभग सभी धर्म-दर्शन अपने प्रायोगिक रूप में किसी न किसी रूप में योग साधना से समाहित हैं तथा वे सभी इसकी आध्यात्मिक, दार्शनिक, सैद्धान्तिक और प्रायोगिक व्याख्या भी करते हैं । अलग-अलग परम्पराओं ने अलग अलग नामों से योग साधना को भले ही विकसित किया हो, किन्तु सभी का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति पूर्वक शाश्वत सुखरूपी मोक्ष की प्राप्ति ही है  । अतः उद्देश्य की दृष्टि से प्रायः सभी परम्पराएँ एक हैं  ।

जैन परंपरा में आज तक के उपलब्‍ध साहित्य ,परंपरा और पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव योग विद्या के आदि प्रवर्तक माने जाते हैं । जैन आगम ग्रंथों के अनुसार इस अवसर्पिणी युग के वे प्रथम योगी तथा योग के प्रथम उपदेष्टा थे । उन्होंने सांसारिक (भौतिक)वासनाओं से व्याकुल, धन-सत्ता और शक्ति की प्रतिस्पर्धा में अकुलाते अपने पुत्रों को सर्वप्रथम ज्ञान पूर्ण समाधि का मार्ग बताया, जिसे आज की भाषा में योग मार्ग कहा जाता है ।

श्रीमद भागवत में प्रथम योगीश्वर के रूप में भगवान ऋषभदेव का स्मरण किया गया है – ‘भगवान ऋषभदेवो योगेश्वरः’  । (श्रीमद्भागवत ५/४/३)

वहां बताया है कि भगवान ऋषभदेव स्वयं विविध प्रकार की योग साधनाओं का प्रयोगों द्वारा आचरण करते थे – ‘नानायोगश्चर्याचरणे भगवान कैवल्यपतिऋषभः’  । ( ५/२/२५ )

आज तक प्राचीन से प्राचीन जितनी भी जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं मिलती हैं वे सभी या तो खड्गासन मुद्रा में मिलती हैं या पद्मासन मुद्रा में । अन्य किसी भी आसन में प्रतिमाएं कहीं नहीं मिलती और न ही नयी बनायीं जाती हैं | ये जैन योग की प्राचीनता और प्रमाणिकता दर्शाता है  ।

सिधुं घाटी की मोहनजोदड़ो (मुर्दों का टीला) नाम से विख्यात सभ्यता ऐतिहासिक रूप से मानव की प्राचीनतम सभ्यता मानी जाती है । विद्वानों की मान्यता है कि इस सभ्यता का जीवनकाल ई.पू. ६००० से लेकर २५०० ई.पू. वर्ष तक रहा है । मोहनजोदड़ो का काल प्राग्‍वैदिक माना जाता  है ।

मोहनजोदड़ो के अवशेषों में नग्न पुरुषों की आकृतियों से अंकित मुद्राएं बहु संख्या में मिलती हैं। सर जान मार्शल के अनुसार वे प्राचीन योगियों की मुद्राएं हैं । इस संबंन्धध में अन्य विद्वानों के भी समान मत प्राप्त होते हैं कि मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित चित्र में त्रिशूल, मुकुट विन्यास, नग्नता, कायोत्सर्ग मुद्रा, नासाग्र दृष्टि एवं ध्यानावस्था में लीन मूर्तियों से ऐसा सिद्ध होता है कि ये मूर्तियां किसी मुनि या योगी की हैं जो ध्यान में लीन हैं । सुप्रसिद्ध इतिहासकार रामप्रसाद चांदा जी का कहना  है कि “सिंधु घाटी की अनेक मुद्राओं में न केवल बैठी हुई देवमूर्तियां योग मुद्रा में हैं, बल्कि खड्गासन देवमूर्तियां भी कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं और वे उस सुदूर अतीत में सिन्धंधु घाटी में योगमार्ग के प्रचार को सिद्ध करती हैं । वह कायोत्सर्ग ध्यान मुद्रा विशिष्टतया जैन है ।”

भारतीय इतिहास के विशेषज्ञ डॉ० ज्योति प्रसाद जी ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहास एक दृष्टि’ में अनेक प्रमाणों तथा विद्वानों के मतों के आधार पर यह निश्चित किया है कि योग की मूल अवधारणा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से प्रारंभ होती है । वे लिखते हैं कि ‘सिन्धंधु घाटी की अनेक मुद्राओं में वृषभ युक्त कायोत्सर्ग योगियों की मूर्तियाँ अंकित मिली हैं जिससे यह अनुमान होता है कि वे वृषभ लांछन युक्त योगीश्वर ऋषभ की मूर्तियाँ हैं |’

इसी बात की पुष्टि करते हुए सुप्रसिद्ध विद्वान राष्ट्र कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में लिखते हैं कि, ‘मोहनजोदड़ो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परंपरा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसे कालांतर में वह शिव के साथ समन्वित हो गयी । इस दृष्टि से जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्ति युक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेदपूर्व हैं’ ।

भारतीय जनता योगीश्वर ऋषभदेव के महान उपकारों के प्रति इतनी ज्यादा समर्पित हुई कि कृतज्ञता वश उनके ज्येष्ठ चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष करके गौरव माना –

‘भरताद्भारतं वर्षम’

इस बात को इस कृतज्ञ देश ने इतनी बार दुहराया कि इस नामकरण वाली बात को काल्पनिक कहकर ठुकराया नहीं जा सकता। भारतीय संस्कृति के इतिहास में ऋषभदेव ही एक ऐसे आराध्यदेव हैं जिन्‍हें वैदिक संस्कृति तथा श्रमण संस्कृति में समान महत्व प्राप्त है।

निःसंदेह बाद में अनेक तीर्थंकरों ने, जैन, वैदिक और बौद्ध आचार्यों ऋषियों ने योग विद्या को पुष्पित पल्लवित किया और आज तक कर रहे हैं किन्तु पहला योगी तो पहला ही होता है । सभी का दादा गुरु, अतः ऋषभदेव का उपकार हम कभी विस्मृत नहीं कर सकते जिन्होंने भारत में सबसे पहले योग विद्या की शुरुआत की |

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