संजमणमेव संजम जो सो खलु हवइ समत्ताणुभाइ ।णिच्छयेण णियाणुभव ववहारेण पचेंदियणिरोहो ।।

संयमन ही संयम है जो निश्चित ही सम्यक्त्व का अनुभावी होता है । निश्चयनय से निजानुभव और व्यवहार से पंचेन्द्रिय निरोध संयम कहलाता है ।

संयमन को संयम कहते हैं । आचार्य वीरसेन कहते हैं उत्तम संयम वही है जो सम्यक्त्व का अविनाभावी हो अर्थात् बिना सम्यग्दर्शन के‌ संयम मोक्ष का कारण नहीं बनता है ।आध्यात्मिक दृष्टि से अपने उपयोग को समस्त पर पदार्थों से समेट कर आत्म सन्मुख करना ,अपने में सीमित करना ,अपने आत्मा में लगाना अर्थात् चित्त की सन्मुखता ,स्वलीनता ही निश्चय संयम है ।व्यवहार से पांच इंद्रियों के विषय भोगों को नियंत्रित करना इन्द्रिय संयम और एक इन्द्रिय से लेकर पांच इन्द्रिय तक के जीवों की रक्षा में तत्पर और जागरूक रहना प्राणी संयम है ।
संयम के बिना हमारा जीवन बिना ब्रेक की कार की तरह है । कार में ब्रेक हो तो कार अन्यथा बेकार । उसी प्रकार जिसके जीवन में जरा सा भी संयम नहीं है उसका जीवन भी बेकार । सभी जन्मों में मनुष्य जन्म ही ऐसा जन्म है जिसमें संयम धारण करने की सामर्थ्य है ।

इसलिए हमें मनुष्य भव का उपयोग संयम धारण कर के कर लेना चाहिए ।
आजकल पर्यावरण की दृष्टि से , सामाजिक दृष्टि से ,राष्ट्र की दृष्टि से भी अनेक प्रकार के संयम रखने की अपील की जाती है । उन्मुक्त भोग एक बहुत बड़ी समस्या है । यह एक ऐसा रोग है जो सब कुछ तबाह कर देता है । संयम एक प्रकार का आत्मानुशासन है । लोग दूसरों पर शासन करना चाहते हैं ,लेकिन खुद अनुशासित नहीं हो पाते हैं ।

अच्छा शासन भी वही कर सकता है जो निज पर शासन करना जनता हो । हमें ईमानदारी से विचार करना है कि हम इन्द्रियों के दास हैं या इन्द्रियां हमारी दास हैं ?

इन्द्रियां जो डिमांड करें उसे हम पूरा करते रहेंगे तो बीमार हो जायेंगे , बर्बाद हो जाएंगे ।

जिस दिन हम अपनी ही इन्द्रियों के मालिक बन जाएंगे उस दिन जितेंद्रिय हो जाएंगे । इन्द्रियां कहेंगी फिल्म देखने चलो , आप दृढ़ता से कहोगे नहीं , आप उसे सख्त आदेश देंगे भगवान् के दर्शन करने जाना है । आपका आदेश स्वीकार करके वे प्रभु दर्शन को जाएंगी । इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय आपके आदेश का पालन करेगी ।

इन्द्रिय कहेगी कि मद्य मांस आदि अभक्ष्य पदार्थ में स्वाद है उसे खाओ ।आप कहोगे मैं मात्र अपने स्वाद और पेट भरने के लिए किन्हीं भी प्राणी का वध नहीं कर सकता ।
यह संयम है , यह धर्म है । जीवन का उत्कर्ष संयम से ही आरंभ होता है ।
अपनी शक्ति को छुपाए बिना , अपनी शक्ति के अनुसार यदि हम छोटा से छोटा नियम भी लें और उसे दृढ़ता पूर्वक पालें तो हमारे जीवन में जो आत्म विश्वास पैदा होगा वह अद्वितीय होगा ।

एक छोटा सा नियम भी बीज के समान होता है जो एक दिन बड़ा वृक्ष बन जाता । एक छोटे से संयम की शुरुआत हमें अपनी ही विस्मृत आत्मा से मुलाकात करवा सकती है , अपने मूल ज्ञायक सत चित आनंद स्वरूप आत्मा की अनुभूति करवा सकती है क्यों कि इन्द्रियों से परे अतिंद्रिय निज आत्मा की अनुभूति ही उत्तम संयम धर्म है ।

लक्ष्य हैं मेरे अटल तो , मंजिलें निश्चित मिलेंगी ।
बो दिया है बीज तो फिर ,क्यारियां निश्चित खिलेंगी ।।

                                                                प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन

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