दिवंगत जैन मुनि तरुण सागर जी द्वारा रचित कविता “आदमी की औकात”

फिर घमंड कैसा

घी का एक लोटा,

लकड़ियों का ढेर,

कुछ मिनटों में राख…..

बस इतनी-सी है

   आदमी की औकात !!!!

एक बूढ़ा बाप शाम को मर गया,

अपनी सारी ज़िन्दगी,

परिवार के नाम कर गया,

कहीं रोने की सुगबुगाहट,

तो कहीं ये फुसफुसाहट….

अरे जल्दी ले चलो

कौन रखेगा सारी रात…..

बस इतनी-सी है

       आदमी की औकात!!!!

मरने के बाद नीचे देखा तो

नज़ारे नज़र आ रहे थे,

मेरी मौत पे…..

कुछ लोग ज़बरदस्त,

तो कुछ ज़बरदस्ती

रोए  जा रहे थे।

नहीं रहा……..चला गया…..

दो चार दिन करेंगे बात…..

बस इतनी-सी है

     आदमी की औकात!!!!

बेटा अच्छी सी तस्वीर बनवायेगा,

उसके सामने अगरबत्ती जलायेगा,

खुश्बुदार फूलों की माला होगी….

अखबार में अश्रुपूरित श्रद्धांजली होगी………

बाद में कोई उस तस्वीर के

जाले भी नही करेगा साफ़….

बस इतनी-सी है

    आदमी की औकात ! ! ! !

जिन्दगी भर,

मेरा- मेरा- किया….

अपने लिए कम ,

अपनों के लिए ज्यादा जिया….

फिर भी कोई न देगा साथ…..

जाना है खाली हाथ…. क्या तिनका ले जाने के लायक भी,

होंगे हमारे हाथ ???  बस

ये है हमारी औकात….!!!!

जाने कौन सी शोहरत पर,

आदमी को नाज है!

जो आखरी सफर के लिए भी,

औरों का मोहताज है!!!!

फिर घमंड कैसा ?

बस इतनी सी हैं

 हमारी औकात…

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