कालसी शिलालेख देहरादून के पास है यही थोड़ा आगे चलने पर तीर्थंकर ऋषभदेव जिन की निर्वाण स्थली अष्टापद है।
गौर करने की बात है इस शिलालेख में कही अशोक का नाम नहीं लिखा बल्कि देवानां पियदस्सी यह उपाधि भर दी है इस शिलालेख की एक और विशेषता है कि इसमे हाथी का चिह्न है जैन ग्रन्थो में एक कथा आती है उसके अनुसार सम्प्रति जब गर्भ में थे तब उनकी माता के स्वप्न में हाथी आया था फलतः सम्प्रति ने भी हाथी को विशेष महत्व दिया प्रारंभिक जैन ग्रन्थो में भी सम्प्रति को देवानां प्रियदर्शी की उपाधि दी है, इसका अर्थ है देवताओ का प्रियदर्शी राजा।
कतिपय इतिहासकार कहते है कि यह हाथी बुद्ध के गर्भावतरण का सूचक है पर यह चिंतनीय विषय है कि अशोक केवल बुद्ध के गर्भावतरण दृश्य का ही उल्लेख क्यो करते ? वह बुद्ध का कोई ओर चिह्न भी बना सकते थे।
वास्तव में इतिहासकारो ने बहुत बड़ी गलती की है उन्होने सभी शिलालेखो को अशोक से जोड़ दिया जबकि ये निर्विवाद सत्य है कि अशोक ने जो कार्य बुद्धिज्म के लिए किया वही कार्य अशोक के पोते सम्प्रति ने जैनिज्म के लिए किया था सम्प्रति ने तीर्थंकरो के 4 निर्वाण क्षेत्रो की तलहटी में 4 शिलालेख खुदवाएँ थे जो क्रमशः कालसी जूनागढ धौली रुपनाथ थे यह सब सम्प्रति द्वारा खुदवाएँ थे एक और तथ्य है अशोक ने भावरा की प्रशस्ति में बौद्ध बनने के प्रमाण है उसमे उसने केवल पियदस्सी इतना भर लिखा है देवानां पियदस्सी नहीं।
इस शिलालेख का हिंदी अनुवाद नीचे प्रदर्शित है इसमे शिलालेखाकार ने धर्म को मंगल कहा है णमोकार मंत्र में भी “धम्मो मंगलम्” यह उक्ति आती है,णमोकार मंत्र जैनो का मंगलाचरण है यहाँ भी मंगलाचरण की बात है।
वास्तव में इहलोक-परलोक संबंधी जो मान्यता जैनिज्म में है उसे शिलालेखाकार ने स्पष्ट उल्लिखित कर दिया है कि—- [[यदि इहलोक में उद्देश्य कि सिद्ध न भी हो तो भी परलोक में अनंत पुण्य मिलता है |किन्तु यदि इहलोक में अभीष्ट की प्राप्ति हो जाय तो धर्म के मंगलाचार से दो लाभ होंगे :इहलोक में अभीष्ट की सिद्ध और परलोक में अनंत पुण्य की प्राप्ति |]]।।।
एक और महत्वपूर्ण बात है इस शिलालेख में लिखा है कि पाप ही बंधन है और सर्वस्व त्याग के बिना उससे छुटकारा नहीं मिलता बुद्धिज्म तो मध्यमार्ग का पोषक है सर्वस्व त्याग में तो क्षुद्र वस्तु के त्याग की भी बात की है और यह जैन श्रमण बनने पर ही संभव है चाहे वह सम्राट हो या सामान्य श्रावक बिना सर्वस्व त्याग किए मोक्ष नहीं मिलता। नीचे देखे— [[[[जो अपुण्य [पाप] है ,वही बंधन है |निरंतर पूर्व प्रयत्न ,सर्वस्व त्याग के बिना कोई भी मनुष्य ,चाहे वह छोटी या विशाल प्रतिष्ठा का हो ,यह कार्य नहीं कर सकता।]]]]]
अब आप स्वयं यह शिलालेख पढे और निर्धारण करे कि यह शिलालेख बौद्ध सम्राट अशोक का है या जैन सम्राट सम्प्रति का
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कालसी लेख का हिंदी अनुवाद —
देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा |लोग बहुत से मंगल (मंगलाचार )करते हैं |विपत्ति में लड़के,लड़कियों के विवाहों में,लड़का या लड़की के जन्मपर ,परदेश जाने के समय_इन और अन्य अवसरों पर लोग तरह –तरह के मंगलाचार करते हैं |पर इन अवसरों पर माताएं और पत्नियाँ तरह-तरह के बहुत से क्षुद्र और निरर्थक मंगलाचार करती हैं |
मंगलाचार करना चाहिए |किन्तु इस प्रकार के मंगलाचार अल्प फलदायी होते हैं |पर जो धर्म का मंगलाचार है ,वह महाफल देने वाला है |इस मंगलाचार में यह होता है :दास और सेवकों के प्रति उचित व्यवहार ,गुरुओं का आदर ,प्राणियो की अहिंसा ,ब्राह्मणों व श्रमण सन्यासियो को दान और इसी प्रकार के अन्य कामों को धर्म मंगल कहते हैं |
अतः पिता या पुत्र या भाई या स्वामी या मित्र या परिचित या पणोसी सभी से कहें ,”यह मंगलाचार अच्छा है ; इसे तब तक करना चाहिए, जब तक कार्य की सिद्ध न हो जाय |”क्योंकि जो दूसरे मंगलाचार हैं वे अनिश्चित फल देने वाले हैं |उनसे उद्देश्य की सिद्ध न हो और यह इहलोक के लिए ही है |पर धर्म का मंगलाचार सब काल के लिए है |यदि इहलोक में उद्देश्य कि सिद्ध न भी हो तो भी परलोक में अनंत पुण्य मिलता है |किन्तु यदि इहलोक में अभीष्ट की प्राप्ति हो जाय तो धर्म के मंगलाचार से दो लाभ होंगे :इहलोक में अभीष्ट की सिद्ध और परलोक में अनंत पुण्य की प्राप्ति |
देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश व कीर्ति को बहुत भारी वस्तु नहीं समझता सिवाय इसके कि जो कुछ भी यश व कीर्ति वह चाहता है ताकि प्रजा धर्म की सेवा और धर्म के व्रत में सम्प्रति और भविष्य में भी दृढ़ हो | अतःदेवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश और कीर्ति की कामना करता है |जो कुछ भी पराक्रम वह करता है ,उसे परलोक के लिए ही करता है ताकि सभी बंधन से मुक्त हो जाएँ |जो अपुण्य [पाप] है ,वही बंधन है |निरंतर पूर्व प्रयत्न ,सर्वस्व त्याग के बिना कोई भी मनुष्य ,चाहे वह छोटी या विशाल प्रतिष्ठा का हो ,यह कार्य नहीं कर सकता |इन दोनों में महान व्यक्ति के लिए तो यह और भी कठिन है |