पहले स्वयं की आत्मा का सुधार करो फिर दूसरों का हित करोः वैज्ञानिक धर्माचार्य 108 कनकनंदी जी महाराज

नई दिल्ली/जयपुर। वैज्ञानिक धर्माचार्य 108 कनकनंदी जी महाराज की वेबीनार ज्ञानशाला का शुभारम्भ सुविज्ञसागर जी के मधुर कंठ से आचार्य श्री द्वारा रचित कविता के पाठ से हुआ। कविता के बोल हैं ‘होली आई रे- आई रे होली आई रे, प्रेम उत्साह की शिक्षा लाई रे।’

काव्यपाठ के बाद गुरुदेव ने बताया कि जब तक पंच लब्धिओं का सम्यक समन्वय नहीं होगा तब तक जीव वह भले ही नारकी, देव, मनुष्य व पशु किसी भी पर्याय में रहे उसका अध्यात्मिक विकास नहीं होगा। आध्यात्मिक उत्थान के पांच कारण हैं- चारों गति के संघी जीव, संपूर्ण शारीरिक अंगों की पूर्णता वाले जीव, ज्ञान उपयोग से युक्त जीव, आत्मा उन्नति तथा आत्म विकास के लिए जागृत जीव। जब पांचों लब्धियों का सम्यक समन्वय होता है तब सम्यक आध्यात्मिक उत्क्रांति होती है।

अनादिकाल से राग-द्वेष मोहात्मक काम इस जीव द्वारा अनंत बार कर लिया गया है अतः यह सुलभ है विभाव भावों में ही रचा जा रहा है। इसके विपरीत समता, शांति और सोहद्र क्षमा आदि आत्मा के स्वाभाविक गुण होते हुए भी दब गए हैं। शरीर के रोग को दूर करने के लिए शल्य चिकित्सा करनी पड़ती है तो अनंत भवों के रोग को दूर करने के लिए गुरु को कटु वचन रूपी शल्य चिकित्सा करना आवश्यक है। गुरुदेव कहते हैं कि आध्यात्मिक उपदेश को ग्रहण करो व स्वयं के दोषों को दूर करो। परोपदेश देने वाले बहुत होते  हैं परंतु आचरण करने वाले बहुत कम होते हैं। करुणा से उत्पला वित तथा विश्व कल्याण की भावना से युक्त गुरु दुर्लभ है। सच्चे गुरु शिष्य के सरसों जैसे दोष को भी सुमेरू की तरह बढ़ाकर बताते हैं जिस प्रकार वैज्ञानिक रोगाणु को लाखों गुना बड़ा करके देखते हैं।

स्वदोष को जानना सबसे महानतम उपलब्धि है। वही सद्गुरु है जो शिष्य के दोषों को यह सोच कर कि शिष्य चला जाएगा, बुरा मान जाएगा या विपरीत हो जाएगा नहीं छुपाता है। सद्गुरु ही जीव का हित कर सकते हैं। उसके माता-पिता भी जीव का हित नहीं कर सकते। स्वदोष बताने वाले शिष्य भी अब बहुत कम हैं। शिष्य के दोष दूर करने वाले गुरु भी अब दुर्लभ हैं। जो भव्य है वह करण लब्धि प्राप्त कर रहे हैं।

आचार्य श्री कहते हैं कि जो आत्माहित नहीं करता है वह मूर्ख अनाड़ी, धूर्त, दुर्बुद्धि, कुज्ञानी और मिथ्या दृष्टि है। आत्म कल्याण के भाव वाला पशु भी महान है। आध्यात्मिक गुण अमुर्तिक है, इसे सभी समझ नहीं सकते बल्कि इसे व्यवहार से समझ सकते हैं। जब स्वदोष स्वयं को ज्ञात होने लगे तो जानना चाहिए कि मेरी आत्मा विकास हो रहा है। अनात्मा भाव के प्रति घृणाभाव जागृत होगा तब ज्ञात होगा कि आत्मा की विशुद्धि बढ़ रही है। पहले स्वयं की आत्मा का सुधार करो फिर दूसरों के हित करो। जो आत्मा में जागृत होता है वह व्यवहार में सुप्त रहता है जो व्यवहार में जागृत रहता है वह आत्मा में सुप्त रहता है। मोक्षमार्गी हमेशा आत्मा में जागृत रहते हैं। संसारी मोक्षमार्गी को मूर्ख समझते हैं जो आत्मज्ञानी साधु हैं वह 7 या 8 भव में अवश्य मोक्ष जाते हैं।

संकलनकर्ता- विजयलक्ष्मी गोदावत

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