डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव, दिल्ली
“आत्मा ब्रह्म विविक्त बोध निलयो यत्तत्र चर्यं पर।
स्वाङ्गासंग विवर्जितैक मनसस्तद् ब्रह्मचर्य मुने।।”
शास्त्रों में कहा है कि – : ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञान स्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है। जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी सम्बन्ध में निर्ममत्व हो चुका है,उसी के ब्रह्मचर्य होता है।”
“उत्तम ब्रह्मचर्य” पहले उत्तम शब्द है और बाद में ब्रम्हचर्य शब्द है ये संयोग बहुत सुंदर है क्योंकि इन दोनों से ब्रह्मचर्य की श्रेष्ठता प्रतीत हो रही है। भगवान महावीर ने ब्रम्हचर्य को दो रूपों में समझाया। एक है निश्चय रूप और दूसरा है व्यवहार रूप। निश्चय रूप साध्य है और व्यवहार रूप साधन है। बस यही दो मूल बातें हैं जो हम सभी को समझना आवश्यक है। जैसे नाव की सहायता से हम नदी को पार करते हैं वैसे ही इस शरीर के माध्यम से, अपनी आत्मा को साधकर हम इस संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं। शरीर और मन से बाह्य राग-द्वेष का त्याग करने के बाद ही हम अपनी आत्मा में रमण कर पाते हैं। शरीर के माध्यम से ही हम धर्म – ध्यान कर पाते हैं। शरीर कर्मों का क्षय करने के लिए, परोपकार करने के लिए, एक माध्यम बन सकता है। अत: शरीर को साधन बनाकर हमें अपनी आत्मा का चिंतन करना होगा। अत: हमें बारम्बार यह चिंतन करने की आवश्यकता है कि अपनी आत्मा के स्वरूप में पूर्णत: लीन होने, स्थिर होने का नाम – उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है।
“दसधम्मसारो” पुस्तक में प्रो.अनेकान्त जैन ने प्राकृत गाथा में “उत्तम-बंभचय्यं” की उत्तम व्याख्या की है –
“बंभणि चरणं बंभं जीवो विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ।
विवरीयलिंगेसु खलु आसत्ति कारणं य भवदुक्खस्स ।।”
अर्थात् “जीव का परदेह की सेवा से रहित होकर अपनी शुद्ध आत्मा में रमण करना ब्रह्मचर्य है । निश्चित रूप से विपरीत लिंग में आसक्ति ही भव दुःख का मूलकारण है ।”
उत्तम ब्रह्मचर्य का स्वरूप बताते हुए आचार्य कहते हैं कि “आत्मा में ही रमण करते रहना ही उत्तम ब्रह्मचर्य है।” बाह्य पर पदार्थों का जिसमें लेश मात्र भी सम्बन्ध नहीं पाया जाता हो ऐसी आत्मिक परिणति का नाम ही ब्रह्मचर्य है और यही आत्मा का स्वभाव होने से धर्म है। ब्रम्हचर्य व्रत धर्म का प्रारम्भिक द्वार है और ब्रम्हचर्य व्रत ही धर्म की पूर्णता का अंतिम द्वार है। इसको धारण करके ही मोक्ष महल की अंतिम सीढ़ी चढ़ी जा सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि मोक्ष मार्ग का प्रारम्भ ब्रह्मचर्य से ही होता है और अंत भी। जो ब्रह्मचर्य व्रत की उपासना करता है जो इसे अपने अंतरंग में धारण करता है वह महान् बन जाता है। कहा भी गया है कि –
“ब्रह्मचर्य,जीवन-सुख-सागर, परमानन्द-शांति-भंडार।
पालन करना अतिशय मुश्किल,जैसे चलना असि की धार।।
कायर इसको धार न सकते, आचरते इसको महावीर।
वसन-वासना विरहित नर ही, पाते हैं भव-सागर-तीर।।”
गुरुजन कहते हैं कि जब तक हमारी आत्मा परपदार्थों में ही रमण करती रहती है तब तक हमें ब्रह्मचर्य की धारक धर्मात्मा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन्द्रियों के विषय भूत पदार्थ आत्मा में रागद्वेष पैदा करते हैं, राग और द्वेषरूप परिणति के होने पर आत्मा रागी और द्वेषी हो जाता है। जिससे आत्मा इस संसार रूपी महागर्त में जा गिरता है इसमें से अपना उत्थान करना, प्रत्येक आत्मा को बड़ा ही कठिन हो जाता है, यही अब्रह्मचर्य नाम का महापाप या महाअधर्म है। ऐसे पाप से छुटकारा कर लेना ही महान् उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है। शील के लिए कहा गया है कि – :
“शील रत्न सबसे बड़ा, सब रत्नों की खान।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील पे आन।।”
ये सभी चर्चाएं इसलिए की जा रहीं हैं क्योंकि आत्मा का उपयोग एक समय में एक ही ओर लग सकता है। या तो आत्म चिंतन में या तो सांसारिक भोगों में। जब हम अपनी खुली आँखों से सृष्टि को देखने लगते हैं तब सृष्टि हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। और जब हम सृष्टि के साथ लुक्का-छुपी का खेल खेलते हैं तो सृष्टि हमारे विनाश का कारण बनती है। शरीर का कोई भरोसा नहीं है जाने कब वह धोखा दे दे ? जाने कब हमारे शरीर का कोई अंग कार्य करना बंद कर दे ? जाने कब हमारी देह में कोई रोग उत्पन्न हो जाए? अत: हमें अपनी दृष्टि अंतरंग की ओर करनी है ताकि हम अपनी अंतर्रात्मा से सृष्टि के और मनुष्य जीवन के वास्तविक स्वरूप को पहचान सकें। ब्रम्हचर्य सदाचार का प्राण है। ब्रह्मचर्य का पालक पूज्यों में भी पूज्य हो जाता है।
इस संसार में आने पर जैसे-जैसे मनुष्य का सांसारिक दुनिया से परिचय होता है वैसे – वैसे राग-द्वेष में उलझकर मनुष्य अपनी आत्मा से दूर होता चला जाता है। विषय-वासना के वशीभूत होकर मनुष्य आँख होते हुए भी अंधा हो जाता है। ऐसा मनुष्य अपना हित अहित भी भूल जाता है अत: ऐसे मनुष्य की गति बहुत ही बुरी होती है। यदि मनुष्य इस गर्त में जाने से बचना चाहता है तो उसे ब्रह्मचर्य की शरण में आना ही पड़ेगा। श्रावकों के लिए ब्रम्हचर्य की बात समझते हुए हम कह सकते हैं कि स्वपति एवं स्वपत्नि में संतोष रखना और इसके अलावा किसी भी परपुरुषों एवं परस्त्रियों के प्रति उस प्रकार का दृष्टिकोण नहीं रखना और गृहस्थ अवस्था में रहते हुए भी स्वयं को विषय-भोगों से मुक्त करके निरंतर अपनी आत्मा चिंतन करने का अभ्यास करना चाहिए। कहा भी है कि – :
“उत्तम ब्रह्मचर्य पर नारी में माँ-बहिनों सा, जो आदर को लाता है,
ब्रह्म-आत्म में जो रमता वह, ब्रह्मचारी कहलाता है,
ब्रह्म-आत्म में रमना ही तो, ब्रह्मचर्य पालन करके,
“उत्तम ब्रह्मचर्य जो पाले, सेवक नत सर धर कर के।।”
( जाप मंत्र – ऊँ हृीं श्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय नम:)