साधुओं की सेवा तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने का कारण: वैज्ञानिक धर्माचार्य कनकनंदी

अभिनव श्रुतकेवली वैज्ञानिक धर्माचार्य कनक नदी गुरुदेव ने योगेंद्र गिरी अतिशेष क्षेत्र सागवाड़ा से अंतरराष्ट्रीय वेबीनार में बताया कि समाधिस्थ मुनि की वैयावृर्ती करने के लिए 48 साधु चाहिए। समाधिस्थ क्षपक की वेदना को जानकार प्रासुक द्रव्य से वात पित्त कफ का प्रतिकार साधु स्वयं करते हैं तथा श्रावकों से भी करवाते हैं। 4,4 साधु अलग-अलग व्यवस्थाएं करते हैं। समाधिस्थ साधु को बस्तीकर्म अर्थात एनीमा भी दिया जाता है , लेप लगाना मालिश करना अंग मर्दन करना आदि बाहरी उपचार प्रासुक द्रव्य से किया जाता है। रुग्ण साधु को करवट बदलवाना आदि भी अन्य साधुओं के द्वारा किया जाता है। उष्ण काल में शीत उपचार तथा ग्रीष्मकाल में उष्ण उपचार किया जाता है। ऋतु के अनुसार साधु के स्वास्थ्य के अनुकूल गर्भस्थ शिशु की तरह साधु की देखभाल सेवा व्यवस्था करनी चाहिए। साधुओं की सेवा ऋतु की अनुकूल साधु की प्रकृति के अनुकूल करनी चाहिए। आगम के अनुसार वर्षा योग शीत योग ग्रीष्म योग इस प्रकार चार-चार महीने एक स्थान पर रहकर साधु अपनी साधना कर सकते हैं। भारत में छह ऋतु होती हैं एक-एक ऋतु में एक-एक मांह एक स्थान पर भी रह सकते हैं। वर्षा काल में 6 महीने स्थावर जंघम जीव हो जाते हैं उनकी रक्षा के लिए वर्षा योग किया जाता है। अधिक ठंड अधिक गर्मी में विहार नहीं करना चाहिए। 12 माह में दो माह सुख विहार होता है। विहार का मुख्य उद्देश्य ज्ञानार्जन करना होना चाहिए। विहार भी दिन में सात ,आठ किलोमीटर करना चाहिए इससे अधिक विहार करना भी आगम के विरुद्ध है। जब महामारी नहीं हो अकाल नहीं हो अधिक गर्मी ना हो अधिक सर्दी ना हो उस समय अच्छे मौसम में विहार करना सुख विहार कहलाता है। धर्म वज्र से भी कठोर है यह कांच का क्लास नहीं जो टूट जाए। वैयावृत्ति करना भी विनय है चतुर्थ कल से लेकर अभी तक महिलाएं ही आहार दान देकर अधिक वैयावृत्ति करती हैं वैयावृत्ति करने में स्वाध्याय करने में आहार देने में सेवा करने में जो धैर्य रहता है वह कायक्लेश है। विनम्र होना स्वाध्याय करना धैर्य रखना विनय करना सरल नहीं है। आत्मा के लिए जो किया जाता है वह वैयावृति है विनय है धर्म है। हमारे प्राचीन आचार्यौ को खगोल भूगोल आयुर्वेद जीव विज्ञान रसायन विज्ञान भौतिक विज्ञान आदि सभी विषयों का सूक्ष्म ज्ञान था आचार्य श्री कहते हैं धर्म रूपी साइकिल को चलाने के लिए आगे का चक्र श्रावक धर्म है तथा पीछे का धर्म श्रमण धर्म है दोनों में बैलेंस होने पर धर्म की साइकिल मोक्ष मार्ग पर व्यवस्थित चल सकती है। श्रावक धर्म के महत्व को बताते हुए कहां की जो मनुष्य श्रावक के व्रत को पूर्ण रूप से पालन करता है वह सोलहवे स्वर्ग में जाकर देव बनता है फिर मनुष्य पर्याय प्राप्त करके साधु बन करके मोक्ष प्राप्त करता है। हमारे प्राचीन आचार्य समंतभद्र स्वामी का उदाहरण देते हुए बताया कि उन्हें भस्म रोग हो गया था इसके कारण उन्हें दीक्षा का भी छेद करना पड़ा फिर रोग दूर होने पर दीक्षा ली वह धर्म में दृढ़ रहे जिससे उनका रोग भी दूर हो गया और महान ज्ञानी आचार्य बने चतुर्थ कल में भी सभी निर्दोष नहीं होते हैं सभी को तुरंत मोक्ष नहीं हो जाता है साधु धर्म का मूल दृढ़ होना चाहिए पत्तियों की तरह कुछ दोष लग जाए तो वृक्ष की पत्तियां झड़ने पर फिर से पल्लवित होती हैं वैसे ही प्रायश्चित करके दोषो को दूर किया जा सकता है। आचार्य ऋषि के सबसे विद्वान शिष्य आचार्य विद्यानंदी जी गुरुदेव ने बताया कि बिना विनय के वैयावृत्ति नहीं हो सकती आचार्य श्री कनक नदी गुरुदेव छिद्रान्वेषीदृष्टि वाले नहीं है। वर्तमान में लोग राग भावना से दूसरों के दोषो को ढाकते हैं परंतु उपगुहन की भावना से दूसरों के दोषो को नहीं ढाकते हैं। भावों से साधु भी उच्च गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में आ जाते हैं। महावर्ती साधुओ का तिरस्कार करना उनको कष्ट देना उनकी निंदा करना अक्षम्य होता है अधिक पाप बंध का कारण होता है। इसीलिए साधुओं की सेवा तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने का कारण बताया गया है। साधुओं का विनय करने से मानसिक समाधान होता है। पंचम काल में चतुर्थ कालीन तपस्या करने के लिए निषेध किया गया है। आतापन योग, वनवास , अधिक उपवास करना आदि का निषेध किया गया हैं।

संकलनकर्ता : विजयलक्ष्मी

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