विषय -दान
वैज्ञानिक धर्माचार्य श्री कनकनंदी जी गुरुदेव द्वारा विभिन्न प्राचीन ग्रंथो द्वारा जारी स्वाध्याय के अंश
1.सबसे श्रेष्ठ व उत्कृष्ट हैं आहरदान
2.आहारदान मे गर्भित हैं चारो दान
3.गुरु भगवन्त को दिया जाने वाला आहारदान ऐसा दान हैं जो की अनादि काल से चली आ रही नवधा भक्ति परम्परा मे बिना किसी बोली, बिना प्रदर्शन, बिना आडम्बर से दिया जाता हैं
4.पुण्य रूपी खजाने को सर्वाधिक भरने वाला पुण्य रत्न हैं आहारदान
- दान की अनुमोदना,सहयोग मात्र से भी मिलता हैं अथाह पुण्य उसके विपरीत निंदा, अड़चन या रूकावट करने से होता घोर पाप का बंध
दान से होने वाले पुण्य की महत्ता व गरिमा👇
वैज्ञानिक धर्माचार्य श्री कनकनंदी गुरुदेव ने उदाहरण के माध्यम से समझाया की
मरू भूमि अर्थात रेगिस्तान मे जहाँ वर्ष भर मे इंच बारिश भी मुश्किल से होती हैं किन्तु वहां पर पाए जाने विशेष पौधे अपनी जड़ो मे लाखो लीटर पानी संचय रखते हैं जिससे वह पोधा हजार वर्ष तक उस मरू भूमि मे भी जीवित रहता हैं ठीक उसी तरह दान से अथाह पुण्य जीव की आत्मा से बंध जाता हैं जो उसे चीर काल तक सुख शन्ति समृद्धि सौहार्द व एश्वर्य प्रदान करता हैं.
प्रत्येक नगर मे प्रायः बड़ी ऊचाई पर जलापूर्ति वाली एक बड़ी टंकी होती हैं उस टंकी मे पानी पहुंचाने के लिए किसी यँत्र की आवश्यकता पडती हैं और ज़ब उस टंकी से पाइप लाइन के माध्यम से पानी छोड़ा जाता हैं तो आपके घरों तक पानी आता हैं किन्तु उसमे भी घर की ऊपरी मंजिल तक पहुंचाने के लिए पुनः यंत्र की आवश्यकता होती हैं,ठीक उसी तरह धर्म क्षेत्र मे उत्तम पात्र को दिये जाने वाले दान का पुण्य उस यन्त्र की तरह आत्मिक उचाई,शान्ति व सौहार्द सब कुछ प्रदान कराता हैं
किन्तु उसमे भी साधु भगवन्त को दिया जाने वाला आहारदान तो पुण्य रूपी विशाल वृक्ष की जड़ को सींचने के बराबर हैं क्योंकि जैसे किसी वृक्ष की जड़ मे पानी डालने से वह पानी वृक्ष के प्रत्येक डाली, शखा, प्रशाखा व पत्ती पत्ती तक पहुंचकर सम्पूर्ण वृक्ष को बिना यन्त्र के पल्ल्वीत करता हैं ठीक उसी तरह आहार दान भी जीव को सर्वस्व शान्ति,अनंत सुख,अनंत वैभव तक पंहुचा देता हैं.
गुरु भगवन्त को आहारदान देने वाला सबसे बड़ा पुण्यशाली व दानवीर हैं, वह सबसे अधिक प्रशंसनीय हैं
आगम वर्णित चार दान(आहार,ज्ञान,ओषध व अभय दान) वट वृक्ष के बीज की तरह हैं जो अत्यंत सूक्ष्म दिखता हैं किन्तु ज़ब पल्ल्वीत होता हैं तो इतना विशाल वृक्ष बनता हैं जो हजारों जीवो को आश्रय व सुकून देता हैं वही पंच कल्याणक -विधान महोत्सव कराना या उसमे सहभागी बनना दान तो हैं किन्तु वह ताड़ वृक्ष के बीज की तरह हैं जो दिखता बड़ा हैं,पल्ल्वीत होने पर लम्बा होने पर फल तो देता हैं किन्तु वट वृक्ष की तरह विशाल नहीं होता, पनाहगार या छायादार नहीं होता
समाज मे व्याप्त बोली प्रथा मे दान नहीं अपितु द्वेष युक्त प्रतिस्पर्धा, दबाव, प्रलोभन,भ्रष्टाचार,आडम्बर व दिखावा हैं
किन्तु वर्तमान मे श्रावक अगमोक्त चार दान रूपी महा पुण्य की ओर कम व अल्प पुण्य वाले रास्ते की ओर ज्यादा दौड़ रहे हैं जिसके लिए साधु, पंडित व समाज सबका स्वार्थ जिम्मेदार हैं
पुण्य की लीला पर पढ़ाते हुए पूज्य गुरुदेव ने बताया की एक हीं पालकी जा रही हैं जिसमे एक व्यक्ति पालकी मे बैठा हुआ हैं तो कुछ व्यक्ति उसे कंधो पर ढोकर ले जा रहे हैं जिसमे बैठने वाला व ढोने वाले सभी मनुष्य हैं किन्तु पुण्य की लीला देखो कोई उसमे बैठा तो कोई उसे ढो रहा हैं
पाप और पुण्य किसी तराजू के ⚖️दो पलड़े की तरह हैं जिसमे पाप का पलड़ा भारी रहता हैं, भारी पलड़ा हमेशा नीचे की ओर जाता हैं अर्थात पाप कर्म के बल से जीव दुःखी, दरिद्र,तनाव संताप युक्त, रोगी या क्लेश ग्रस्त रहता हैं वही पुण्य का पलड़ा हल्का होने से ऊपर रहता हैं
किसी नदी पर अरबो रूपये की लागत से बना मजबूत से मजबूत बांध भी ज़ब थोड़ा सा भी टूटता हैं तो उससे भारी क्षति होती हैं जान माल की तबाही हो जाती हैं, ऐसे हीं भूकंप से भी अच्छे खासे बसें बसाये नगर भी ध्वस्त हो जाते हैं ठीक उसी तरह पुण्य के क्षीण होने पर बड़े बड़े चक्रवर्ती, राजा महाराजा या सेठ साहूकार भी कंगाल या दुःखी हो जाते हैं जिसका अनुभव आप अपने आस पड़ोस या परिचितों मे भी किया होगा.
गुरुदेव ने बताया की धर्म हीं स्थायी सुख, सम्पदा प्रदान कराता हैं, धर्म कार्य मे दान नहीं दे सकते हो तो उसकी अनुमोदना, सहयोग व समर्थन अवश्य करें, जाने अनजाने मे भी उसकी कभी निंदा नहीं करें, अडचन या रूकावट नहीं डाले.
इस तरह का सत्य सटीक सार भुत हितोपदेश देने वाले पूज्यवर स्वाध्याय तपस्वी आचार्य श्री कनकनंदी जी गुरुराज के चरणों मे बारम्बार नमन
🖊️शब्द सुमन-शाह मधोक जैन चितरी🖊️
नमनकर्ता -श्री राष्ट्रीय जैन मित्र मंच भारत