१००८ भगवान चन्द्रप्रभु जैन धर्म के आठवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध हैं। भगवान चन्द्रप्रभ का जन्म काशी जनपद की चन्द्रपुरी में पौष माह की कृष्ण पक्ष द्वादशी को अनुराधा नक्षत्र में हुआ था। प्रभु के माता पिता बनने का सौभाग्य राजा महासेन और लक्ष्मणा देवी को मिला। प्रभु के शरीर का वर्ण श्वेत और चिह्न चन्द्रमा था।
चन्द्रप्रभ जी का जीवन परिचय
भगवान चन्द्रप्रभ जी ने भी अन्य तीर्थंकरों की तरह तीर्थंकर होने से पहले राजा के दायित्व का निर्वाह किया। साम्राज्य का संचालन करते समय ही भगवान चन्द्रप्रभ जी का ध्यान अपने लक्ष्य यानि मोक्ष प्राप्त करने पर स्थिर रहा। एक दिन परिजनों के साथ महल की छत पर बैठे प्रभु को आकस्मिक उल्कापात देखकर वैराग्य हो गया और राजपद का त्याग करके प्रभु ने सन्यास धारण करने का संकल्प किया।
एक वर्ष की कठोर तपस्या के बाद १००८ भगवान चन्द्रप्रभु ने पौष कृष्ण त्रयोदशी को तीन माह की छोटी सी अवधि में ही प्रभु ने फ़ाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन केवली ज्ञान को प्राप्त किया और धर्म तीर्थ की रचना कर तीर्थंकर पद की उपाधि प्राप्त की।
भगवान के चिह्न का महत्तव
१००८ भगवान चन्द्रप्रभु के नाम का अर्थ ‘चन्द्र प्रभाÓ से युक्त होना है। चन्द्रमा यश अपयश, लाभ हानि, उत्थान पतन का प्रतीक है। इस संसार में जो आता है उसे जाना भी होता है, जिसका सम्मान होता है वह अगर कुछ गलत कर दे तो लोग उसका तिरस्कार भी करते हैं। चन्द्रमा की तरह जीवन भी कई कलाओं से युक्त है। यह जन्म से मृत्यु के अनुसार घटती बढ़ती रहती हैं। चंद्रमा से हमें आभायुक्त बने रहने की शिक्षा मिलती है। यदि शुभ विचारों का जन्म होगा तो जीवन विकसित होता हुआ मोक्ष को प्राप्त हो जायेगा।