आजादी के बलिदान की पटकथा यूपी की बिलारी तहसील के ग्राम हरियाना के बिना अधूरी है, क्योंकि मेरे छोटे दादू श्री केशव सरन जैन की स्वतंत्रता आंदोलन में अविस्मरणीय भूमिका रही है। बाल्यावस्था से ही उनमें देश प्रेम कूट-कूट कर भरा था । तन को खादी भाती, तो मन को देश की माटी… । लबों पर हर वक्त, भारत माता की जय रहती तो बदन पर खुद बुने खादी के कपड़े, देशभक्ति की तस्दीक करते। गांधी टोपी तो मानो उनके लिए राजमुकुट के मानिंद थी । जेल बंदी के दौरान ही बेटी की मृत्यु हो गई लेकिन भारत माता ही सर्वोपरि रही। न माफी मांगी और न ही पैरोल स्वीकार किया। अंग्रेजी मुखालफत और खादी-गांधी प्रेम आजीवन रहा, लेकिन उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई के बदले कोई प्रतिफल स्वीकार नहीं किया । आजादी के दीवाने श्री केशव सरन जैन की परिवार बेला उनके सपनों को साकार कर रही है । उनके बड़े भाई श्री ब्रजरतन जैन के पुत्र एवम् मेरे पिता श्री प्रेम प्रकाश जैन आजीवन उनके बताए रास्ते पर ही चले। मैं तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति के रूप में अपने दादू के विचारों के अनुरूप ही देश और समाज की सेवा में लगा हूँ। मेरे पुत्र एवम् यूनिवर्सिटी के वॉइस ग्रुप चेयरमैन श्री मनीष जैन चौथी तो श्री अक्षत जैन पांचवी पीढ़ी नुमाइंदे के तौर पर उनके ख्वाबों में रंग भर रहे हैं। 1892 में जन्में स्वतंत्रता सेनानी श्री केशव सरन के मन में अंग्रेजों को लेकर नाराजगी इस हद तक थी कि उन्होंने अपने पुत्र को मिडिल स्कूल में अंग्रेजी सब्जेक्ट ही नहीं दिलवाया । देश में उस समय कांग्रेस और और सोशलिस्ट दो ही पार्टियां थीं। श्री केशव सरन जैन गांधी जी को अपना आराध्य मानते थे। उनसे प्रभावित होकर ही गांधी जी के साथ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में शामिल हुए। गाँधी जी से प्रेरित होकर उन्होंने सामाजिक जागृति और भेदभाव मिटाने के लिए हरिजनों को सार्वजनिक कुओं से पानी लेने का हक दिलाया तो दलितों को घर पर भोजन कराया। नतीजा यह रहा कि उन्हें अपनों यानी जैन समाज ने ही बहिष्कृत कर दिया। उन्होंने इसकी कोई परवाह न करते हुए कहा, भगवान महावीर के अनुसार सब में समान आत्मा है। छोटा बड़ा जन्म से नहीं, कर्म से होता है , लेकिन इससे फिरंगी और उनके पिट्ठू जमींदार, स्वतंत्रता सेनानी केशव सरन जैन से बेहद नफरत करने लगे और उन्होंने श्री जैन के पूरे खानदान को मरवाने की गहरी साजिश रची लेकिन सुपारी पर आए बदमाश भी जीव-दया-करुणा की प्रतिमूर्ति श्री जैन के मुरीद हो गए। अंततः उनके पैर छूकर और आशीर्वाद लेकर बैरंग लौट गए। श्री केशव सरन जैन गरीबों के हमदर्द थे। आर्थिक रूप से कमजोर और दुर्बल वर्ग के लिए उनके मन में जीव-दया-करुणा, कूट-कूट कर भरी थी। स्वयं तो उन सबकी हर तरह से मदद करते ही थे। साथ ही जमींदारों, पुलिस व प्रशासनिक अधिकारीयों के उत्पीड़न से भी उन्हें बचाते रहते थे। अपनी साफगोई के चलते उन्हें आसपास का पूरा इलाका लाट साहब कहकर पुकारता था। राजनीतिक हल्के में उन्हें सभी छोटे और वरिष्ठ नेता ताऊ जी कहकर सम्मान देते थे। वह सदैव खुद चरखे से सूत कातकर, उससे बने वस्त्र ही पहनते थे।
1942 में जब आजादी का आंदोलन चरम पर था । पुलिस उत्पीड़न से बचने और देश की आजादी का आंदोलन जारी रखने के लिए वे भेष बदल कर भूमिगत हो गए थे। ऐसे समय में उन्हें अपने बड़े भाई श्री ब्रज रतन लाल और भतीजे श्री प्रेम प्रकाश जैन यानी मेरे पिताजी का पूर्ण सहयोग मिला। उनकी पत्नी श्रीमती सोहनी देवी जैन ने उन्हें सारी पारिवारिक चिंताओं से मुक्त करके, बच्चों के पालन-पोषण में कोई रुकावट नहीं आने दी। जब पुलिस की घेराबंदी बढ़ गई तो सब से नजर बचाते हुए कुंदरकी-मुरादाबाद रेल मार्ग पर, मछरिया रेलवे स्टेशन के पास एक बाग में मोर्चा सम्भाला। कई दिनों तक वे गन्ने के खेतों में छिपते रहे और भूखे प्यासे रहकर देश की आजादी का बिगुल बजाते रहे। मौका मिलते ही फिरंगियों की नजरों से बचते हुए रात में पैदल चलकर 17 सितंबर, 1942 की सुबह मुरादाबाद कोतवाली के सामने ‘भारत माता की जय’ की गूंज के बीच तिरंगा लहराते हुए अंग्रेजों भारत छोड़ो कहकर खुद को गिरफ्तार करवा दिया। उस समय उनका 3 वर्ष का इकलौता पुत्र बीमार हालत में अस्पताल में था। जेल प्रवास के दौरान ही उनकी एक पुत्री की मृत्यु हुई लेकिन उन्होंने माफी मांगने से इंकार कर दिया और न ही पैरोल स्वीकार किया। वे सभी आंदोलनकर्ताओं के साथ 23 जून, 1943 को जेल से रिहा किए गए।
संघर्ष का सुखद फल मिला । देश आजाद हुआ। उन्होंने अपनी आजादी की लड़ाई के बदले में कोई प्रतिफल लेना स्वीकार नहीं किया। अपनी सीमित आय से खुद गांव में अकेले रह कर उन्होंने अपने पुत्र और पुत्री को पत्नी के साथ भेजकर मुरादाबाद में उच्च शिक्षा दिलाई। उन्हीं के आशीर्वाद से उनके पुत्र डॉ. निर्मल जैन, प्रतिष्ठित रिटायर्ड जज और लेखक के रूप में जाने जाते हैं। वे अपने पुत्र मनोज जैन, आर्किटेक्ट टाउन प्लानर के साथ दिल्ली में रहते हैं । 23 अक्टूबर ,1965 में उन्होंने इस नश्वर शरीर को त्याग दिया। आज भी क्षेत्रवासी समाज और देश के प्रति समर्पण और नि:स्वार्थ त्याग के कारण उनका नाम आदर और श्रद्धा के साथ लेते हैं । दादू की मृत्यु के एक साल बाद उनकी स्मृति में मेरे द्वारा क्षेत्र में शिक्षा के विकास के लिए गांव में ही एक छोटे स्कूल की स्थापना की गयी। अब यह मदन स्वरूप इंटर कॉलेज के नाम से नौनिहालों का भविष्य संवार रहा है। मैंने उनकी प्रेरणा को यहीं विश्राम नहीं दिया। उनके पौत्र के रूप में मेरे नेतृत्व में 140 एकड़ के विशाल परिसर में तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी और मेडिकल कॉलेज चल रहा है । विश्वविद्यालय में देश और दुनिया के 14,000 से भी अधिक छात्र-छात्राएं अध्ययनरत हैं।
(लेखक तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति हैं)