गुरुणाम गुरु का प्रेरक प्रसंग

समाज के दायरे से बढ़कर प्रत्येक प्राणी पर होती है महापुरुषों की करुणा

19वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के अंकली ग्राम में शिवगोड़ा नाम का एक 12 वर्षीय बाल किशोर था, जो हष्ट-पुष्ट तो था ही साथ ही नेक, दयाभाव से भरा हुआ धार्मिक संस्कारों से परिपूर्ण भी था। महाराष्ट्र व कर्नाटक प्रांत में जैन समाज कृषि प्रधान समाज है जो आज भी व्यापक स्तर पर कृषि से आजीविका सम्पन्न करता है। शिवा के पिता व बड़े भाई भी खेती करते थे

एक दिन शिवा के पिता सिद्धगोड़ा ने शिवा से कहा कि बेटा आज में कार्य में व्यस्त होने के कारण खेत पर नहीं जा पाऊंगा और तुम्हारा बड़ा भाई वहां भूखा है तो तुम चले जाओ, भाई को भेज देना वह भोजन भी कर लेगा व थोड़ा आराम भी।

शिवा को प्रायः खेत पर नहीं जाने दिया जाता था, आज बड़ी मुश्किल से उसे यह अवसर मिला था। इसलिए वो उत्साह के साथ खेत की तरफ चल दिया। जैसे ही शिवा खेत पर पहुंचता है उसे देखकर बड़े भाई ने आश्चर्य से कहा कि तू खेत पर क्यों आया, किसने भेजा तुझे? तू तो छोटा व कोमल है। रहट खींचना, खेत सींचना तेरे बस की बात नहीं, तू घर जा, मैं आता हूं।

शिवा ने अपने भाई की बात सुनकर कहाकि भैया आप कुछ खाएंगे-पियेंगे नहीं और आराम नहीं करेंगे तो आपके साथ-साथ इन बैलों को भी आराम नहीं मिलेगा, भाई 12 बज गए हैं और धूप भी तेज है, आप घर जाइए और खाना खाकर थोड़ा आराम करना, मैं खेत का काम बराबर देख लूंगा।

जिद्दी शिवा अपने भाई को घर भेज देता है और मन में सोचने लगता है कि ये बैल बेचारे कुछ बोल नहीं सकते। सुबह से धूप में कुंए की रहट खिंच रहे हैं और वजन भी खींचते हैं इन्हें भी भूख-प्यास व थकान लगती होगी। ऐसा सोचते हुए शिवा दोनों बैलों को आराम व चारा खाने के लिए खोल देता है और स्वयं बोझ उठाकर रहट खींचने लगता है। तेज धूप में रहट खींचते व खेत को सींचते हुए शिवा पसीने से लथपथ हो जाता है।

उधर बैल घूमते-घूमते घर पहुंच जाते हैं। शिवा काम में तल्लीन था तो बैलों के बारे में भूल गया, जैसे ही पिताजी ने बैलों को देखा उनका माथा ठनका। उन्होंने सौचा कि जरूर शिवा ही रहट खिंच रहा होगा। बड़े भाई ने कहा कि हां पिताजी आपने उसे क्‍यों भेजा? वो उसके बस की बात नहीं है वो बहुत ही दयालु-करुणाधारी है।

पिता सिद्धगौड़ा गुस्से से भरे खेत पर पहुंचते हैं और शिवा को रहट खींचते हुए देखकर कहते है कि शिवा हमें इतना कठोर परिश्रम नहीं करना होता, हमारे पास बैल हैं, हमें बैलों से मेहनत लेनी चाहिए, इस प्रकार अधिक दया से हम क्या खाएंगे।

इस पर शिवा ने कहा कि पिताजी बैल थक गए थे, भखे भी थे अतः मैंने छोड़ दिया। मैं भी देखना चाहता हूं कि मैं यह कार्य इतनी देर तक कर सकता हूं या नहीं।

शिवा की बातें सुनकर पिता सिद्धगौड़ा बोले बेटा ये तेरा कैसा भोलापन है, तेरा संसार कैसे चलेगा? उनकी आंखों से आंसू निकलने लगे। पिताजी ने धूप में रहट खींचते हुए शिवा के कंधों से रहट उतरवा दिया। शिवा की मूक पशुओं पर दया देखकर व उसकी शक्ति व दृढ़ कर्तव्यनिष्ठा से अभिभूत हो पिता ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि शिवा तू जरूर एक दिन महान बनेगा।

वहीं शिवा कालान्तर में बड़ा होता है और उस पर गृहस्थी की जिम्मेदारी भी आ जाती है, तब एक समय उस क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ता है और लोगों के पास खाने का अनाज समाप्त हो जाता है। तब शिवा देखता है कि बड़े-बड़े जमीन मालिकों के पास अनाज के भंडार भरे पड़े हैं और लोगों के पास कुछ भी नहीं है तो उन्होंने सभी बड़े जमीन मालिकों को सम्बोधित किया कि ये भंडार तो पुनः भरे जा सकते हैं लेकिन भूख से मरने वाले लोगों को वापस नहीं लाया जा सकता इसलिए ये भंडार लोगों के लिए खोल दिए जाए।

शिवा के हर तरह के भारी प्रयास के बाद वो भंडार लोगों को बांट दिए गए। जिसमे कुछ बड़े लोगों ने नाराज होकर उन पर केस भी किया किन्तु शिवा उस चुनौती से भी निपट गया।

यही शिवगौड़ा पाटिल जिसके मन में समाज के दायरे से अनन्त गुणा व्यापक प्राणी मात्र के प्रति करुणा थी वही आगे चलकर अंकलिकर परम्परा जनक गुरुणामगुरु 108 आचार्य श्री आदिसागर जी ऋषिराज बने जो दीक्षा के बाद 7 उपवास के बाद एक ही आहार ग्रहण करते, प्रायः जंगलों व गुफा में ध्यान-अध्ययन में रत रहते हुए सिर्फ पारणा आहार हेतु ही नगर या गांव में आते थे। वर्तमान में विराजित एक हजार श्रमणों के अधिनायक 108 आचार्य भगवन्त श्री आदिसागर जी महामुनिराज को कोटिशः नमन

शब्दसुमन-शाह मधोक चितरी

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