श्री आदिसागर अंकलिकर स्वामी के अतिशय पट्टाचार्य श्री महावीरकीर्ति जी स्वामी से सन 1950 में क्षुल्लक-ऐल्लक दीक्षा के बाद मुनि दीक्षा लेने के बाद वात्सल्यरत्नाकर श्री विमलसागर जी को श्री महावीरकीर्ति जी ऋषिराज ने श्रेष्ठ योग्यता को देखते हुए उच्च विद्या संस्कारो को प्रदान कर सन 1953 में धर्म प्रभावना के पावन उद्देश्य से पृथक विहार की आज्ञा दी।
आचार्य श्री विमलसागर जी का अपने गुरु के प्रति अगाढ़ विनय रखते हुए सन 1953 में प्रथम पृथक चातुर्मास गुनोर (म.प्र.)में हुआ।जहा जैनियों के 20 घर थे।सभी सरल व भद्रपरिणामी जीव थे।किन्तु वहाँ प्रतिवर्ष विजयादशमी के अवसर पर भैसों की बलि चढाई जाती थी।हिंसा का बड़ा प्रभाव था।सभी जैन-अजैन को चंदे में पैसे देने पडते थे।यह बात मुनि श्री विमलसागर जी को सुनने में आयी।उनका ह्रदय द्रवित हो उठा।विजयादशमी के दो दिन पूर्व ही गाँव की समाज को ये समाचार मिला जब तक जीवो की बलि चढ़ाने का हिंसात्मक कार्य बंद नही होगा,तब तक मुनि श्री का आहार-पानी का त्याग है।मुनि श्री ने स्पष्ट किया मैं अपने रहते हुए यहाँ ये हिंसात्मक कार्य नही होने दूंगा।
‘बिजली की तरह खबर सारे गाँव मे फैल गई।अब सारी जनता में हाहाकार मच गया।गाँव के सरपंच आदि बड़े-बड़े गणमान्य नागरिक आये।सबने मुनि श्री से अन्न-जल ग्रहण करने की प्रार्थना की और कहा ये बलि प्रत्येक वर्ष चढती है,नही चढाई तो कोई दैवी प्रकोप आदि होगा तो क्या करेंगे?
आदि आदि शंकाए रखी।सभी शंकाओ का समाधान देते हुए मुनि श्री ने कहा -किसी भी धर्मग्रन्थ के शब्दकोष को उठाकर देखिये बलि का अर्थ-नैवेद्य अर्थात मिठाई, लड्डू,गुड़ शक्कर से बने मीठा पदार्थ अर्पण करना होता है लेकिन कुछ अज्ञानीयो ने इसे पशु बलि का रूप दे दिया।भला कोई माँ जिसमे ममता समाहित है वे उन पशुओं की जो हमे दूध,गोबर देकर कृषि में मदद करते है ऐसे जीवो की बलि से प्रसन्न हो ही नही सकती ,कोई भी देव-देवी रक्त या मांस जैसे अशुद्ध पुदगल से प्रसन्न नही होता बल्कि अशुद्धता व नकारात्मक वातावरण का संचार होता है।तुम लोग पूजा-पाठ करो पर हिंसा नही।यह मारकाट समाप्त होना चाहिये।मुनि श्री वात्सल्य से बोले-सरपंच जी,यदि जानवरो को मारकर रक्त बहाने से स्वर्ग मिलता तो फिर नर्क का रास्ता कौनसा है?
लेकिन फिर भी यदि आप लोगो को कोई दैवीय प्रकोप का भय है तो उसकी सम्पूर्ण जिम्मेदारी मैं लेता हूँ।
पूज्य मुनि श्री विमलसागर जी के तेज व ओजस्वी समाधान को पाकर भगवान कि कृपा से गाँव के सरपंच सहित सभी गणमान्य लोगो ने निर्णय लिया कि आज से हम भैसों या किसी भी जीव की बलि नही चढ़ाएंगे।गाँव मे बन्द हुई बलि प्रथा आज तक निषेध है कहते है उसके बाद से सम्पूर्ण गाँव और सर्व समाज का भी मुनि श्री के आशीष से चहुमुखी विकास हुआ।इसी तरह अब आचार्य श्री विमलस्वामी का संघ सन 1974 में विहार करता हुआ शिखर जी जा रहा था,मार्ग में गया शहर आया।जहाँ से 40 किमी दुरी पर कलुवा पहाड़ करके रमणीक अतिशय क्षेत्र है।जहाँ भगवान पार्श्वनाथ की अति मनोज्ञ प्रतिमा है।’वैसे वहाँ की जमीन को जहाँ खोदो ,वही मुर्तिया मिलेगी’ ,यह निश्चित है कि यहाँ पर करीब चौबीसों तीर्थंकरों का समवशरण आकर विराजमान हुआ था,वीतराग भगवंत की दिव्य देशना भी हुई थी’ ऐसा आ.विमलसागर जी बताते थे।
वहाँ प्रतिवर्ष रामनवमी को भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के फण पर बकरो को रख कर काटा जाता था।यह बात आचार्य श्री को मालूम हुई तो तुरन्त ही पंचायत बुलाई गयी और उसमें आचार्य श्री ने ये हिंसात्मक कार्य रोकने को कहा,साथ ही अनेक शंकाओ का समाधान कर ग्रामवासियो को किसी अनहोनी जैसे अंधविश्वासों से भयमुक्त करके कहा कि आप मेरे द्वारा बताए धर्म वचनों का पालन करो सम्पूर्ण ग्रांम में आनन्द और समृद्धि होगी ।इस प्रकार पूरी पंचायत ने स्वीकृति दे दी।उसके बाद आज तक वहाँ ऐसा कोई हिंसात्मक कार्य नही हुआ।सम्पूर्ण गाँव आनन्द से रहता है।
इस प्रकार अपनी उदारता,वात्सल्यता,सर्व समाज के प्रति करुणा,व्यापकता और प्रभावशाली वाणी से सम्पूर्ण भारत मे अहिँसा का बीज बोया।यहाँ तक कि आचार्य श्री ने अपनी करुणा से गरीब से गरीब आदिवासी भाइयो पर भी अहिंसा धर्म का उपकार किया।आचार्य श्री के कक्ष के बाहर नित्य दोपहर में लगने वाली दुख और संकटो से घिरे हजारो की तादाद में लोगो की भीड़ जिसमे हिन्दू-सिख,मुस्लिम व अजैन बन्धु बहु मात्रा में उपस्थित होते थे जिनको भी आचार्यवर वात्सल्य आशीष से णमोकार महामन्त्र का जाप देकर व मांस-मंदिरा का त्याग कराकर उन दुःखियों के दुःख तो दूर करते ही थे अपितु मदिरा और मांस जैसे अभक्ष्य पदार्थो से दूर कर उनके परिवार को समृद्धि व शांति की दिशा भी देते थे ।
ऐसे श्री आदिसागर जी अंकलिकर स्वामी के अतिशय पट्टाचार्य तीर्थभक्त शिरोमणि आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी स्वामी के नन्दन वात्सल्यरत्नाकर आचार्य श्री विमलसागर जी ऋषिराज व उनके महान शिष्य युगाचार्य श्री सन्मति सागर जी ऋषिराज को कोटि कोटि नमन।।
गणिनी आर्यिका श्री स्याद्वादमती माताजी द्वारा रचित वात्सल्यरत्नाकर ग्रन्थ से प्रेषित।