इंदौर# धर्मनगरी इंदौर में श्वेतपिच्छाचार्य श्री विद्यानन्दी जी गुरुराज के आशीर्वाद से गोम्मटगिरी क्षेत्र का निर्माण हुआ। स्थान नगर से दूर एक टेकरी पर है।सुना जाता है वह टेकरी किसी देवी के नाम से प्रसिद्ध थी। जब से कार्य प्रारम्भ हुआ तब से विघ्न आते ही रहे। क्षेत्र को जाते हुए अनेक लोगो को एक्सीडेंट का सामना करना पड़ा, कई जीव मौत के घाट उतरे। सारे समाज मे हाहाकार मच गया था। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि क्षेत्र के सम्मानित कार्यकर्ता भगवान बाहुबली की मूर्ति को लेने के लिये गये तो दो दम्पत्तियों का मार्ग में ही एक्सीडेंट हो जाने से मरण हो गया। अब तो इंदौर की धार्मिक जनता में भय की लहर दौड़ पड़ी। सब लोगों ने जाकर आचार्य श्री विद्यानन्दी जी महाराज से प्रार्थना की-‘गुरुदेव! संकट निवारण कीजिए। ” चिंतनीय स्थिति पर विचार विमर्श कर आचार्य महाराज ने कहा-”पाटोदी। इस संकट से उबरने के लिये तुरन्त आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज के पास जाओ,उन्हें इंदौर प्रतिष्ठा में लेकर आओ।वे अनेक ज्ञान -विद्याओ से निपुण है अभी की स्थिति मेरे वश की बात नही अतः शीघ्रता करो।
उस समय वात्सल्यरत्नाकर आचार्य श्री विमलस्वामी जी ससंघ लोहारिया राजस्थान में विराजमान थे। पाटोदी व कुछ अन्य वरिष्ठ धर्मात्मा सज्जन वहाँ जाकर आचार्य श्री को सारी स्थिति से अवगत कराया तथा संकट दूर करने की बात कही। वात्सल्यरत्नाकर स्वामी ने उन्हें बाधाओ को रोकने के उपाय बताए तथा गोम्मटगिरी प्रतिष्ठा में सानिध्यता हेतु पहुचने की स्वीकृति दी। वात्सल्यरत्नाकर ऋषि ने सबको आश्वासन व आशीर्वाद देते हुए कहा-”आप किसी प्रकार की चिंता न करे,अब कोई संकट नही आएगा। मेने सारा उपाय इंतजाम कर दिया है और मैं शीघ्र आ ही रहा हूँ। ”सबके मुरझाए चहरे प्रफुल्लित हो गये। उसके बाद आज तक कोई संकट नही आया।
वात्सल्यरत्नाकर गुरु के चरणों मे रोता हुआ व्यक्ति हँसता हुआ जाता था।
इस तरह सन 1986 में प्रतिष्ठा के अवसर पर दोनों आचार्य का अपूर्व मिलन हुआ। वात्सल्यरत्नाकर श्री विमल स्वामी,श्वेतपिच्छाचार्य विद्यानन्दी जी और उपाध्याय श्री भरतसागर जी ने जिन प्रतिमाओं में अंगन्यास विधि और सूर्य मन्त्र देने की विधि पूर्ण की।
आचार्य श्री विद्यानन्दीजी जी महाराज ने कहा-”अब हमारे कार्यो में कोई विघ्न नही आएगा क्योकि पूज्य आचार्य भगवंत श्री विमलसागर जी महाराज जैसे महासन्त हमे मिल गये है” इस तरह सारे कार्य निर्बाध्य और सानन्द सम्पन्न हो गये
आचार्य श्री विद्यानन्दी जी गुरुदेव ने महान आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी से सन 1946 में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की थी। अर्थात श्री विमलगरु से गुरुभाई का रिश्ता भी था। जो समय समय पर दोनो महापुरुषों ने आत्मीयता से निभाया।
इस युग मे अब तक श्वेतपिच्छाचार्य श्री विद्यानन्दीजी जी गुरुदेव 72 वर्ष से सबसे ज्यादा दीर्घकालिन साधनारत तपस्वी सन्त है। जो दिल्ली की कुन्दकुन्द भारती में विराजमान है
श्री आदिसागर जी अंकलिकर स्वामी के अतिशय पट्टाचार्य तीर्थभक्त शिरोमणि आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी स्वामी के नन्दन वात्सल्यरत्नाकर आचार्य श्री विमलसागर जी ऋषिराज व उनके महान शिष्य तपस्वी सम्राट युगाचार्य श्री सनमतिसागर जी ऋषिराज को कोटि कोटि नमन
श्री आदि-शांति-वीर-भूषण-कीर्ति-विमल-सन्मति-विद्यानन्दी-भरत-सुनील गुरुभ्यो नमः।।
गणिनी आर्यिका श्री स्याद्ववादमति माताजी द्वारा रचित वात्सल्यरत्नाकर ग्रन्थ से प्रेषित।