वैज्ञानिक धर्मचार्य श्री कनकनंदी जी गुरुराज द्वारा गुणभूषण श्रावकाचार ग्रंथ के विषय “विनय पर” की गयी स्वाध्याय वर्षा की कुछ बुंदे
धर्म के अनेक सोपान मे से प्रथम सोपान है विनय
सोपान अर्थात सीढी
किसी भी घर मे प्रवेश के लिए सर्वप्रथम सीढी पर चढ़ना होता है,उसके बाद ही घर मे प्रवेश सम्भव हो पाता है उसी तरह धर्म की शरण मे जाने के लिए सबसे पहले विनय रूपी सीढी पर आरूढ़ होना पड़ता है
किन्तु प्रत्येक सोपान पर चढ़ने के लिए भाव महत्वपूर्ण है
जैसे कोई भी पाषाण की सीढी को बनाने के लिए रेत, इट, पत्थर,सीमेंट सब कुछ है किन्तु यदि पानी नही है तो क्या वहा जड़ाई के लिए माल तैयार हो सकता है??? क्या बिना पानी के रेत सीमेंट मिलकर पाषाण को जॉइंट कर सकते है??? नही
ठीक उसी तरह शुभ भाव के बिना विनय भी सम्भव नही
जब तक भाव नही होंगे तब तक विनय नही हो सकता
जैसे कोई भी पशु पक्षी मनुष्य बिना अक्सीजन,बिना पानी या बिना खुन के जिंदा नही रह सकते,कोई मनुष्य आलिशन घर मे,मस्त कपड़ो मे ठाठ बाठ से बैठा रहे किन्तु अक्सीजन,पानी नही हो तो क्या जिंदा रहना सम्भव है??? नही ,उसी तरह भाव बिना विनय भी सम्भव नही है
भाव जो है वह हमारा शरीर नही है, न ही हमारा इन्द्रिय, नही हमारा मस्तिष्क है और न ही मन है अपितु वह तो सम्पूर्ण आत्मा से है।
जैसे हमे प्यास लगती है तो भले हम मुख से पानी पीते है किन्तु क्या उससे सिर्फ मुख की प्यास बुझती है क्या??, नही बल्कि सम्पूर्ण शरीर की प्यास बुझती है
जब हम सांस लेते है तो क्या सिर्फ नाक को ही प्राण शक्ति मिलती है क्या??? नही ,बल्कि सम्पूर्ण शरीर को प्राण शक्ति मिलती है
हमारा ह्रदय जब पम्पिंग करता है तो वह दूषित खुन को फ़िल्टर करके धामनियों के माध्यम से सम्पूर्ण अंगों तक रक्त शक्ति पहुँचता है
एक विशाल वृक्ष के जड़ो मे पानी डालने से उस विशाल वृक्ष की लाखो शाखा प्रशाखा तक वह जल कण पहुँचता है।
ठीक उसी तरह भावो से किया गया विनय ,श्रद्धा या पुण्य कर्म हमारे सम्पूर्ण आत्म प्रदेश तक जुड़ता है जो हमारे इस भव से पर भव तक आत्म कल्याण मे मुख्य स्तोत्र बनता है।
शुभ भाव से कर्म की निर्जरा होती है।
भाव बिना विनय सम्भव नही,जैसे रावण ने सीता को पाने के लिए उनसे जो खुब सारी याचना की वह विनय नही,नेता चुनाव जितने के लिए लोगो से जिस तरह नमस्कार् करते है – पैर पड़ जाते है वो विनय नही क्योकि ऐसा होता तो दुनिया के सभी चोर लुटेरे ठग व भृष्टाचारी विनयवान कहलाते।
ठीक उसके विपरीत जब कोई अत्यंत क्रोध या तनाव मे हो तब उसका सम्पूर्ण शरीर लाल या कपकपाता है उसका प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ता है ठीक उसी तरह बुरे विचारों,आडम्बर व कुभावो का प्रभाव उसकी आत्मा से होकर आत्म पतन होता है,पाप कर्म का बंध होता है
इसलिए धर्म की प्रत्येक क्रिया मे भाव महत्वपूर्ण है,भाव शुभ है तो ही क्रिया सार्थक व पुण्य दाई है अन्यथा आडम्बर,दिखावा व प्रदर्शन मात्र है
गुरुदेव द्वारा निरंतर भाव विशुद्धि की प्रेरणा व आडम्बरो पर गहरे प्रहार का ही परिणाम है की पूज्य आचार्य श्री संघ द्वारा एकांत जंगलो मे प्रवास करने पर भी बिना निमंत्रण के भी अनेकानेक श्रावक स्व प्रेरणा से निरंतर आहारदान से लेकर समस्त सेवा वैयावृत्ति मे आते है,अभी योगेंद्र गिरी मे प्रवास मे वर्षयोग पुण्यर्जक वर्षा जी परिवार,संघस्थ ब्रह्म सोहन दादा,आहारसेवा संचालिका ममता अम्मा,संघ सेविका वीणा जी आदि आवश्यक कार्य हेतु अपने अपने अपने गृह क्षेत्र मे जाने पर भी श्री संघ की सेवा व्यवस्था हेतु बिना किसी निमंत्रण सूचना के आस पास की नगरियो के श्रावक श्राविका प्रातः काल से स्वेच्छा से सेवा मे पधार कर पुण्य संचय कर अपने कर्मो की निर्जरा कर रहे है।
ऐसा लगता है जैसे 2300 वर्ष पूर्व एकांत जंगल क्षेत्र श्रवण बेलगोला मे जहा समीपस्थ कोई श्रावको का घर या नगर नही था ऐसे मे वहा चन्द्रगुप्त महामुनि की सेवा मे देवताओ ने स्व प्रेरणा से श्रावकों की नगरी बनाकर सेवा अर्पण की थी ठीक उसी तरह यहा एकांत योगेंद्र गिरी मे भी देव तुल्य श्रावक श्राविका आकर निस्वार्थ,स्व कल्याण हेतु आचार्य श्री संघ की सेवा मे आ जाते है।
जो श्रेष्ठ विनय- श्रेष्ठ भक्ति – श्रेष्ठ गुरु पूजा सेवा का सर्वश्रेष्ठ मिसाल है
मै अपनी अल्प बुद्धि से आचार्य श्री कनक नंदी जी गुरुराज के द्वारा महा समुद्र के समान स्वाध्याय जैसी वाणी मे से एक ड्राप सामान बुंदे प्रेषित कर पाया हु
🖊️शब्द सुमन -शाह मधोक जैन चितरी🖊️
नमन कर्ता- श्री राष्ट्रीय जैन मित्र मंच भारत